31 मार्च को `आज़रबैजान जाति-संहार दिवस` के अवसर पर आज़रबैजान गणराज्य के राष्ट्रपति हैदर अलीयेव द्वारा आज़रबैजान की जनता को किया गया सम्बोधन, बाकू, 30 मार्च 1999

आदरणीय देशवासियो!

आज आज़रबैजान को आज़ाद हुए आठ साल हो चुके हैं। स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद से हमारी एक बहुत बड़ी उपलब्धि यह रही है कि हमें अपने उस काल और अपने इतिहास की उन घटनाओं को वस्तुपरक ढंग से चित्रित करने का अवसर मिला है जो बहुत सालों तक हमसे छिपाई गई थीं, झुठलाई गई थीं और विकृत भी की गई थीं। ऐसी घटनाओं में से एक है आज के दिन मनाया जाने वाला 'आज़रबैजान जाति-संहार दिवस' जिसका हमारे देश ने अब उचित राजनीतिक और कानूनी मूल्यांकन कर लिया है। 

हर साल 31 मार्च को 'आज़रबैजान जाति-संहार दिवस' मनाते समय हम अपने ऐतिहासिक अतीत की ओर वापस लौटते हैं और अपने दिल में बड़े दर्द के साथ हमारी जनता के प्रति की गई व्यापक खूनी कार्रवाई को याद करने लगते हैं।

उन्नीसवीं और बीसवीं सदियों में हमारी जनता को कई भयानक त्रासदियों का सामना करना पड़ा था। कुछ बड़े देशों द्वारा अपनाई गई साम्राज्यिक नीति का क्रूरतापूर्वक और छल-कपट से पालन करनेवाले आर्मेनियाइयों ने आज़रबैजानियों का कई बार सफ़ाया करने और जाति-संहार करने का प्रयास किया था और तब हमारी जनता को भयानक कष्ट, राष्ट्रीय त्रासदियाँ तथा पीड़ाएँ झेलनी पड़ी थीं। लाखों अमनपसंद आज़रबैजानियों को केवल उनकी जातिगत पहचान की वजह से मार डाला गया था, उन्हें अपने घरों से भगा दिया गया था और आज़रबैजान के प्राचीन नगर और गाँव खण्डहरों में तब्दील कर दिए गए थे। 

आर्मेनिया के राष्ट्रवादियों द्वारा उन्नीसवीं सदी के शुरू में अपनाई गई जाति-संहार की नीति जिसके लिए उन्होंने ज़ारकालीन रूस की साम्राज्यवादी नीति का और चालीस तथा पचास के दशकों में सोवियत शासन का उपयोग किया था अस्सी के दशक के मध्य में आकर 'पेरेस्त्रोइका' का आवरण धारण करके और भी अधिक उग्र हो गई थी जिसके फलस्वरूप आज़रबैजान की जनता को और भी अधिक नई-नई मुसीबतें झेलनी पड़ी थीं। खेद की बात तो यह है कि न तो अन्तरराष्ट्रीय समुदाय ने और न ही आज़रबैजान गणतन्त्र के कर्णधारों ने इन खूनी कारनामों का ठीक समय पर उचित मूल्यांकन नहीं किया और ऐसा न करने से अंधराष्ट्रवादी-अलगाववादी ताकतों को छूट मिल गई थी। इसी छूट का यह परिणाम था कि 1988 में हम पर थोपे गए तथाकथित नागोर्नो-काराबाख़ टकराव के शुरू में ही लाखों आज़रबैजानियों को सिर्फ़ उनकी जातीयता के कारण या तो मार डाला गया था या उन्हें अपनी ऐतिहासिक भूमि से भगा दिया गया था, जनवरी 1990 में जनता के साथ पाशविक अपराध किए गए थे जिसने बाकू तथा आज़रबैजान के अन्य स्थानों में इस अन्याय के विरुद्ध अपनी आवाज उठाई थी और 1992 में तो भयानक खोजाली जातिसंहार घटित हुआ था।

आर्मेनियाई आक्रमणकारियों और बृहत् आर्मेनिया के सिद्धान्तकारों के जाति-विनाश के दुस्साहसपूर्ण कारनामों के परिणामस्वरूप हमारे दस लाख से भी अधिक देशवासियों को अपनी मातृभूमि से भगा दिया गया था और उन्हें अमानवीय कष्टों का सामना करना पड़ा था। अकेली बीसवीं सदी में ही बीस लाख से अधिक आज़रबैजानी जाति-संहार की उस घृणास्पद नीति का शिकार हुए थे जिसे हमारे दुश्मनों ने किसी-न-किसी रूप में अपना रखा था। फिर भी, इन सब त्रासदियों, कठिनाइयों और अन्यायों बावजूद हमारी जनता का जीवन चलता रहा है, उसने स्वतन्त्रता की आकांक्षा को बनाए रखा है और वह दृढ़ इच्छा-शक्ति का परिचय देती रही है। 

आज के दिन पीछे को मुड़ कर एक बार फिर हम अपने इतिहास पर नज़र डाल लें। जहाँ हमें अपनी सफलताओं पर गर्व है, वहीं हमको हुए नुकसान को लेकर हमारे मन में खेद भी है। अब सभी तरह के ऐसे आधार हमने निर्मित कर लिए हैं ताकि आज़रबैजान एक स्वतन्त्र देश की तरह जी सके, अपने वैध काम को सारी दुनिया के सामने प्रस्तुत कर सके और अतीत में हुए अन्यायों को दूर करने का प्रयास कर सके। 

हमारे प्रमुख उद्देश्यों में से एक है – पिछली शताब्दी में हमारी जनता के साथ किए गए जाति-संहार को राष्ट्रीय स्मृति के रूप में अपनी वर्तमान और भावी पीढ़ियों के मन में पक्की तौर पर स्थापित करना, उन त्रासदियों का राजनीतिक तथा वैधानिक मूल्यांकन करना, उनके भयंकर परिणामों को दूर करने का प्रयास करना और इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के पूरे प्रयास करना। इसके लिए ज़रूरी है कि हम दृढ़ और अटूट राष्ट्रीय एकता का प्रदर्शन करें। हमारी जनता के प्रति किसी भी तरह के सम्भावित विश्वासघात और आक्रमण का मुकाबला केवल ऐसे प्रयत्नों तथा इच्छा-शक्ति से ही किया जा सकता है जो स्वतन्त्र आज़रबैजान के लिए किए जाने वाले अनवरत संघर्ष की ओर लक्षित हों जो हमारा सर्वोच्च लक्ष्य है। 

मैं आप लोगों से एकता, राष्ट्रीय हितों तथा हमारी जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए कठोर संघर्ष करने का आवाहन करता हूँ।

(समाचार-पत्र "बाकीन्स्की रबोची", 31 मार्च 1999, के पाठ के आधार पर रूसी से हिन्दी में अनुवाद।)