आज़रबैजान गणराज्य के राजकीय त्योहार और स्मरणीय तिथियाँ


 

राजकीय अवकाश की तिथियों को लाल रंग से दर्शाया गया है। हरे रंग से उन त्योहारों, स्मरणीय तिथियों आदि को दर्शाया गया है जो देश के लिए महत्व की तो हैं किन्तु वास्तविक अर्थ में त्योहार नहीं हैं। 


1 और 2 जनवरी 


















 

नव वर्ष

'जनवरी' नाम (लैटिन में 'यानवारुस') रोमन देवता यानुस के नाम पर पड़ा है। ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार यह साल का पहला महीना है। ग्रेगोरियन कैलेंडर को सन् 1582 में अपनाया गया था। रूस में पीटर प्रथम की राजाज्ञानुसार यूलियन कैलेंडर का प्रचलन शुरू कर दिया गया था। उस राजाज्ञा के अनुसार 1 जनवरी को जो ईसा मसीह का जन्म-दिवस है वर्षारम्भ का दिन मान लिया गया और इस तरह 1 जनवरी 1701 से अठारहवीं शताब्दी का आरम्भ हुआ।

सन् 1918 में सोवियत रूस की सरकार के अध्यक्ष व्ल.इ.लेनिन के द्वारा जारी किए गए आदेशानुसार ग्रेगोरियन कैलेंडर को अपना लिया गया। पहले नव वर्ष जहाँ 13 जनवरी से शुरू होता था, अब वह अन्तर दूर हो गया और इस तरह अब नव वर्ष 1 जनवरी से ही गिना जाने लगा जो अवकाश का दिन माना जाता है।

आज़रबैजान गणतन्त्र में यही कैलेंडर चलता है और 1 जनवरी अवकाश का दिन होता है।

सन् 2006 से 1 और 2 जनवरी त्योहार के दिन माने जा रहे हैं और ये दोनों ही अवकाश के दिन होते हैं।

टिप्पणी : सन् 2006 से यह नियम बना दिया गया है कि यदि त्योहार का दिन छुट्टी (अवकाश) के दिन पड़ता हो तो अगले दिन को अवकाश-दिवस मान लिया जाता है। 

20 जनवरी

 

जन शोक दिवस

आज़रबैजानी जनता के इतिहास में 20 जनवरी का दिन सबसे अधिक रक्तरंजित त्रासदी के रूप में दर्ज हो गया है। उस दिन पूर्व सोवियत संघ ने अपनी सैन्य ताकत का इस्तेमाल करते हुए आज़रबैजानी जनता के विरूद्ध जो आतंक और पाशविकता दिखाई थी वह मानव जाति के इतिहास में काले पन्ने के रूप में दर्ज होगी और जिसे मानवीयता के खिलाफ हुए सबसे बड़े अपराधों में गिना जाएगा। सर्वसत्तात्मक सोवियत शासन के पतन की पूर्ववेला पर अपनी राष्ट्रीय स्वतन्त्रता तथा अपने देश की क्षेत्रीय अखण्डता के लिए उठ खड़ी हुई शान्तिपूर्ण जनता के विरुद्ध की गई हिंसात्मक कार्रवाई तथा सैंकड़ों निर्दोष व्यक्तियों की हत्याओं और खून-खराबे ने सारी दुनिया के सामने सोवियत शासन की मूलभूत आपराधिकता को फिर से प्रकट करके दिखा दिया था।

सोवियत सेना के समूहों, विशेष कार्य-दल की टुकड़ियों और आन्तरिक सुरक्षा-दलों को जनता के विरुद्ध लगा कर उसके प्रति बहुत अधिक क्रूरता और अविश्वसनीय पाशविकता बरती गई थी। उसी समय आज़रबैजान पर पड़ोसी आर्मेनिया ने भी हमला कर दिया था। उस परिस्थिति में सोवियत नेतृत्व ने टकराव को दूर करने के लिए कोई निर्णायक कदम उठाने के बजाय उल्टे यह किया कि आज़रबैजान को भेजी जाने वाली फौजी टुकड़ियों में स्ताव्रोपोल, क्रास्नोदार और रोस्तोव के आर्मेनियाई जवानों और अफसरों को, सोवियत सेना की यूनिटों में कार्यरत आर्मेनियाइयों को और यहाँ तक कि आर्मेनियाई प्रशिक्षुओं को भी शामिल कर लिया।

बाकू में तैनात किए गए सैन्य-दल को जिसकी संख्या साठ हजार तक बताई जाती है पूरी मनोवैज्ञानिक तैयारी के साथ भेजा गया था (ऐसा कहना है 'श्शीत' नामक संगठन के स्वतन्त्र सैन्य विशेषज्ञों का) - "तुम्हें बाकू में रूसी लोगों की रक्षा के लिए तैनात किया गया है जिन्हें स्थानीय लोग जानवरों तरह मारने में लगे हुए हैं; उग्रवादियों ने साल्यान बैरक (जहाँ पर बाकू का मुख्य सैन्य गैरिज़न स्थित है) के आसपास के घरों की छतों पर कमीनदारों (स्नाइपरों) को बिठा रखा है और वहाँ 110 स्थानों से गोलीबारी की जा सकती है; इमारतों और फ्लैटों में आज़रबैजान जन मोर्चे के हथियारबन्द लोग भरे हुए हैं जो तुम पर अपनी ऑटोमैटिक बन्दूकों और मशीनगनों की बौछार कर देंगे।"

मिखाईल गोर्बाचोव के नेतृत्व वाले सोवियत साम्राज्य ने बाकू में अपने 'रूसी और आर्मेनियाई पत्तों' का बड़ी चालाकी से इस्तेमाल किया। कहने को तो बाकू में सेना लोगों की तथा सैनिकों के परिवारों की रक्षा के लिए और ''जातिपरक उग्रवादियों'' द्वारा जबरन सत्ता हासिल करने के प्रयास को विफल करने के लिए भेजी गई थी परन्तु वास्तव में यह मात्र ढोंग और कोरा झूठ था। यदि सोवियत नेतृत्व के ''तर्कों'' में जरा भी सच्चाई होती तो सिर से पाँव तक पूरी तरह हथियारों से लैस फौज को बाकू में भेजने की आवश्यकता ही नहीं होती। उस समय वहाँ पर पहले से ही आन्तरिक सुरक्षा के साढ़े ग्यारह हजार जवान मौजूद थे; इसके अलावा रक्षा मन्त्रालय के अन्तर्गत आने वाले बाकू गैरिज़न की भी बहुत सारी सैन्य टुकड़ियाँ तथा हवाई सुरक्षा की यूनिटें भी वहीं पर मौजूद थीं। चौथी सेना का कमाण्ड मुख्यालय भी बाकू में ही स्थित था।

इस सबके बावजूद 19 जनवरी 1990 को मिखाईल गोर्बाचोव ने सोवियत संघ के संविधान की 119-वीं धारा तथा आज़रबैजान गणराज्य के संविधान की 71-वीं धारा का सरासर उल्लंघन करते हुए बाकू में आपात् स्थिति की घोषणा के आदेश पर हस्ताक्षर कर दिए थे। 19 जनवरी को सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी केजीबी के 'अल्फा' नामक दल ने आज़रबैजान दूरदर्शन की बिजली आपूर्ति को विस्फोट से उड़ा दिया था जिससे पूरे गणराज्य में दूरदर्शन का प्रसारण ही रुक गया था। उसी दिन रात को सेना की टुकड़ियाँ शहर में प्रवेश कर गईं जबकि वहाँ के निवासियों को पता ही नहीं था कि आपात् स्थिति की घोषणा हो चुकी है। सेना ने नगरवासियों पर अत्याचार करने शुरू कर दिए। गोर्बाचोव के आदेश के लागू होने से पहले ही अर्थात् 20 जनवरी रात के बारह बजे तक 9 लोग मारे जा चुके थे। बाकू में आपात् स्थिति लागू होने की घोषणा की सूचना जनता को 20 जनवरी को सुबह 7 बजे जाकर आज़रबैजान के रेडियो प्रसारण द्वारा प्राप्त हुई। तब तक मरनेवालों की संख्या 100 तक पहुँच गई थी जबकि आज़रबैजान भेजे गए गोर्बाचोव के उच्चपदस्थ प्रतिनिधि बेशर्मी से यह घोषित करते रहे कि बाकू में आपात् स्थिति लागू नहीं की जाएगी। सैंकड़ों लोगों के खून से रँगे हाथों वाले मिख़ाईल गोर्बाचोव के नेतृत्व वाले सोवियत साम्राज्य का यही असली चेहरा था और उसी गोर्बाचोव को कुछ समय बाद शान्ति के लिए नोबल पुरस्कार से सम्मानित भी कर दिया गया (?!)।...

टैंकों और बख़्तरबन्द गाड़ियों के रास्ते में जो कुछ भी आया उसे उन्होंने कुचल डाला तथा सैनिकों ने चारों तरफ बेरहमी से गोलीबारी की। गोलियाँ न सिर्फ़ रास्तों पर चल रहे लोगों को आकर लगीं बल्कि बसों और अपने घरों में बैठे लोग भी उनका शिकार हुए। घायलों को लेने आईँ एम्बुलेन्स गाड़ियों और मेडिकल कर्मचारियों पर भी गोलीबारी की गई। कुछ ही दिनों में 137 लोग मौत के घाट उतार दिए गए, लगभग 700 लोग घायल हुए और 800 से अधिक लोग गैर-कानूनी ढंग से हिरासत में ले लिए गए।

 26 फरवरी

 

खोजाली जातिसंहार और राष्ट्रीय शोक-दिवस

25-26 फरवरी 1992 की रात को आर्मेनिया की सशस्त्र सेना की टुकड़ियों ने खोजाली शहर पर कब्जा कर लिया था। आर्मेनिया की सेना की उन टुकड़ियों को पूर्व सोवियत संघ की 366-वीं मोटरसज्जित पैदल रेजीमेंट और उसकी भारी मशीनों का समर्थन प्राप्त था जो ख़ानकेन्दी शहर में तैनात थी।

खोजाली शहर पर धावा बोलने से पहले तोपों और भारी हथियारों से जम कर गोलाबारी की गई थी। यह गोलाबारी 25 फरवरी की शाम से ही शुरू हो गई थी। परिणामस्वरूप शहर में आग लग गई थी और 26 फरवरी की सुबह पाँच बजे तक लगभग सारा शहर आग की लपटों में डूब चुका था। शहर में करीब 2500 लोग बचे रह गए थे और उन्होंने भी अपने घरों को मजबूर होकर इस आशा के साथ छोड़ा था कि किसी तरह अग्दाम शहर की दिशा में आगे बढ़ जाएँ क्योंकि वही ऐसा निकटतम जिला-केन्द्र था जहाँ मुख्यतः आज़रबैजानी लोग रहते थे। किन्तु उनकी आशाएँ पूरी होने वाली नहीं थीं। खोजाली पर हमला करने वाली आर्मेनिया की फ़ौजी टुकड़ियों ने मोटरसज्जित पैदल रेजीमेंट से सैन्य समर्थन प्राप्त करते हुए शान्तिपूर्ण जनता पर अत्याचार करने शुरू कर दिए। परिणामस्वरूप 613 लोग मारे गए जिनमें से 63 बच्चे, 106 महिलाएँ और 70 वयस्क थे।

8 परिवार पूरे-के-पूरे मार डाले गए।

25 बच्चे अपने माता-पिता दोनों से वंचित हो गए।

130 बच्चों के माता-पिता में से एक को मार डाला गया।

487 लोग घायल हुए जिनमें से 76 बच्चे थे।

1275 लोगों को बन्धक लिया गया।

150 लोग लापता हो गए।

राज्य को तथा नागरिकों की व्यक्तिगत सम्पत्ति को भारी नुकसान पहुँचा जिसका मूल्य 5 अरब रूबल (अप्रैल 1992 की कीमतों के आधार पर) आँका गया था।

ये आँकड़े फरवरी 1988 में शुरू हुए नागोर्नो-काराबाख़ संघर्ष की सबसे अधिक खूनी त्रासदी का प्रमाण हैं।

मार्च








 

 

अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस

8 मार्च - यह महिलाओं की एकजुटता का अन्तरराष्ट्रीय दिवस है जो आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक समानता के लिए संघर्ष करने में लगी हुई हैं। अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस को मनाने का फैसला कोपनहेगन में सन् 1910 में हुए समाजवादी महिलाओं के दूसरे अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में लिया गया था जिसका सुझाव क्लारा त्सेत्किन की ओर से आया था। पहले पहल अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस सन् 1911 में जर्मनी, ऑस्ट्रिया, स्विट्ज़रलैण्ड और डेनमार्क में मनाया गया था। रूस में अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस सन् 1913 से मनाना शुरू हुआ था और आज़रबैजान में सन् 1917 से। 1914 तक यह दिवस अलग-अलग तारीखों को मनाया जाता रहा था। अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च को मनाने की परम्परा तब शुरू हुई जब ऑस्ट्रिया, हंगरी, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका तथा कुछ अन्य देशों की महिलाओं ने इस त्योहार की यही तिथि निश्चित कर दी।

तभी से सभी देशों में 8 मार्च को ही 'शान्ति-संघर्ष एकजुटता दिवस' भी मनाया जा रहा है। सन् 1965 में आज़रबैजान सोवियत समाजवादी गणतन्त्र में 8 मार्च को त्योहार की छुट्टी घोषित की गई। आज़रबैजान की स्वतन्त्रता के बाद भी 8 मार्च का दिन त्योहार के रूप में चला आ रहा है।

टिप्पणी : सन् 2006 से यह नियम लागू है कि यदि त्योहार के दिन पहले से ही कोई अन्य छुट्टी है तो उससे अगले दिन को अवकाश-दिवस मान लिया जाता है।

21 मार्च 

 

नवरोज़

वसन्त के आगमन तथा नए वर्ष का स्वागत करने का त्योहार है नवरोज़। कैलेन्डर के अनुसार वसन्त का पहला दिन सूर्य के अर्द्धवार्षिक विषुव का सूचक है।

नवरोज़ की ऐतिहासिक जड़ें बहुत प्राचीन काल तक - ज़रथुस्त्र ऋषि के काल तक - जाती हैं जिनकी आयु 3700-5000 वर्ष मानी जाती है।

प्राचीन बेबीलोन में यह त्योहार निसान (मार्च, अप्रैल) की 21 तारीख को मनाया जाता था और 12 दिनों तक चलता था। इन बारह दिनों में हर रोज़ अलग-अलग प्रकार के अनुष्ठान और अलग-अलग तरह के मनोरंजन होते थे। सबसे पहले के एक लिखित स्रोत में लिखा मिलता है कि नवरोज़ का त्योहार ईसा पूर्व सन् 505 में आरम्भ हुआ था।

इस्लाम ने नवरोज़ को धार्मिक रूप प्रदान किया। परन्तु फ़िरदौसी, रुदाकी, इब्न-सीन, निज़ामी, सादी, हाफ़िज़ी जैसी महान विभूतियों ने यह सप्रमाण यह स्थापित किया है कि नवरोज़ का त्योहार इस्लाम के उदय होने से बहुत पहले ही आरम्भ हो चुका था। नवरोज़-विषयक पुस्तकों में से निज़ामी का "सियासतनामा" और उमर ख़य्याम का "नवरोज़नामा" उल्लेखनीय हैं।

आज़रबैजान अग्नि का देश है और अग्नि-पूजन की प्रथा से सम्बन्धित बहुत-सी परम्पराएँ यहाँ प्रचलित हैं। प्राचीन परम्परा के अनुसार इस अवसर पर नवरोज़ के सम्मान में तोपों और बन्दूकों से सलामी दी जाती है। न. दुब्रोविन ने उन्नीसवीं सदी में इस बारे में यह लिखा है - "आज़रबैजान के शहरों और गाँवों में वसन्त के आगमन के अवसर पर तोपों से सलामी दी जाती थी।" अदाम ओलेआरी ने जिन्होंने नवरोज़ के त्योहार पर आयोजित समारोहों में भाग लिया था यह लिखा है - "खगोलीय यन्त्रों तथा सौर घड़ी की सहायता से सूर्य की ऊँचाई का निर्धारण करने वाले खगोलविद दिन और रात के मिलन का क्षण (विषुव) आते ही यह घोषित कर देते थे कि 'नववर्ष का आगमन हो गया है'। उसी क्षण जगह-जगह तोपों की सलामी शुरू हो जाती थी, शहर के बुर्जों और किलों की प्राचीरों से संगीत बज उठता था। इस तरह वसन्त के त्योहार का आरम्भ होता था।" (1637)

नवरोज़ ख़ुशी का और सबकी पसन्द का त्योहार है। यह त्योहार आज़रबैजानियों के पारम्परिक मूल्यों को अपने आप में समेटे हुए है।

टिप्पणी : सन् 2006 से यह नियम लागू है कि यदि त्योहार के दिन पहले से ही कोई अन्य छुट्टी है तो उससे अगले दिन को अवकाश-दिवस मान लिया जाता है।

31 मार्च
 

 

आज़रबैजानियों का जाति-संहार दिवस

आज़रबैजानियों के जाति-संहार का दिन हर साल 31 मार्च को मनाया जाता है। सन् 1918 के मार्च-अप्रैल महीनों में आर्मेनियाइयों ने बाकू, शामाख़ी, गूबा, मुगान और ल्यान्क्यारान में 30 हजार से अधिक आज़रबैजानियों की हत्या कर दी थी और कई हजार लोगों को अपनी ही भूमि से बाहर निकाल दिया गया था। अकेले बाकू शहर में लगभग 10 हजार से भी अधिक आज़रबैजानियों को क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतार दिया गया था। शामाख़ी में 58 गाँवों को नष्ट कर दिया गया था और 7 हजार लोगों की हत्या कर दी गई थी जिनमें 1653 महिलाएँ और 965 बच्चे भी थे। गूबा में 122 गाँव धूल में मिला दिए गए थे, कराबाख़ के पहाड़ी क्षेत्र में 150 गाँव, ज़ान्गेज़ूर में 115 गाँव, इरेवान गुबेर्निया में 211 गाँव, कार्स्क जिले में 92 गाँव पूरी तरह नष्ट कर दिए गए थे। बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं समेत सभी का संहार किया गया। इरेवान में रहनेवाले आज़रबैजानियों के अनेकों सम्बोधनों में (इसके लिए 2 नवम्बर 1919 के "अश्ख़ादावोर" और "त्रुझ़ेनिक" अखबारों को देखा जा सकता है) यह कहा गया था कि आज़रबैजानियों के इस ऐतिहासिक नगर तथा उसके आसपास के इलाकों में थोड़े-से समय में ही 88 गाँव नष्ट कर दिए गए, 1920 घर जला डाले गए और 131970 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। 26 मार्च 1998 को आज़रबैजान गणतन्त्र के राष्ट्रपति हैदर अलीयेव ने विशेष आदेश जारी किया जिसके अनुसार 31 मार्च को स्मरणीय दिवस - आज़रबैजानियों का 'जाति-संहार दिवस' - घोषित किया गया।

मई

 

फ़ासीवाद पर विजय का दिन

द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) मानवजाति के लिए भयानक और त्रासद विपत्तियों का काल था जिसे भुलाया नहीं जा सकता है।

युद्ध के वर्षों में (1941-1945) आज़रबैजान की जनता ने युद्ध के मोर्चे पर और देश के अन्दर भी बड़ी-से-बड़ी बहादुरी और साहस का प्रदर्शन किया था। बहुत कम समय में हमारे गणतन्त्र में 87 लड़ाकू बटालियनें और 1124 आत्मरक्षा की टुकड़ियाँ तैयार कर ली गई थीं। 1941 से 1945 के बीच आज़रबैजान के 6 लाख से अधिक बहादुर युवक-युवतियाँ युद्ध के मोर्चे को गए थे। आज़रबैजान की डिवीजनों ने काकेशस से लेकर बर्लिन तक का युद्ध का गौरवपूर्ण मार्ग तय किया था। हमारे लगभग 130 देशवासियों को 'सोवियत संघ का वीर चक्र' और 30 को 'गौरव चक्र' प्राप्त हुआ है। आज़रबैजान के 1 लाख 70 हजार जवानों और अफसरों को सोवियत संघ के विभिन्न पदकों से सम्मानित किया गया है। 'सोवियत संघ के वीर चक्र' से सम्मानित हुए अज़ी अस्लानोव (दो बार), इस्राफील मामेदोव, रुस्लान वज़ीरोव, आदिल गुलीयेव, ज़िया बुन्यादोव, गेराइ असादोव, मेलिक मगेर्रामोव, मेहती हुसैनज़ादे, जनरल महमूद अबीलोव, जनरल आकिम अब्बासोव, जनरल तर्लान अलियारबेकोव, जनरल गाजीबाला ज़ेइनालोव तथा बहुत-से अन्य सैनिकों ने अपनी बहादुरी से हमारी जनता के इतिहास के नए पन्ने लिखे हैं।

अर्थ-व्यवस्था को युद्ध के मोर्चे की सेवा की ओर मोड़ने के उद्देश्य से हमारे गणतन्त्र में कई सारे कदम उठाए गए थे। थोड़े ही समय में बाकू शहर युद्धरत सेना के लिए आयुध-भण्डार के रूप में बदल गया था। बहुत सारी कठिनाइयों के बावजूद हमारे तेलकर्मियों ने अपने साहस और वीरता का प्रदर्शन करते हुए युद्ध के मोर्चे और उद्योगों को ईंधन की आपूर्ति लगातार बनाए रखी थी।

अकादमिक यूसुफ़ मामेदालियेव के नेतृत्व में विमान-ईंधन प्राप्त करने की नई तकनीक ईजाद की गई थी। हमारे तेलकर्मियों के निःस्वार्थ परिश्रम के फलस्वरूप आज़रबैजान के इतिहास में पहली बार रिकार्ड तेल-उत्खनन हुआ - 2 करोड़ 35 लाख टन जो पूरे सोवियत संघ के तेल-उत्पादन का 71.4 प्रतिशत था। कुल मिला कर आज़रबैजान के तेलकर्मियों ने युद्ध के सालों में देश को 7 करोड़ 50 लाख टन तेल, 2 करोड़ 20 लाख टन पेट्रोल तथा अन्य तेल-उत्पाद मुहैया कराए थे। पूरे विश्वास के साथ ऐसा कहा जा सकता है कि फ़ासिज़्म पर विजय प्राप्त करने में बाकू का तेल भी एक प्रमुख कारक रहा था। इतना उल्लेख करना ही पर्याप्त है कि हर पाँच में से चार विमान, चार टैंक और चार गाड़ियाँ बाकू के तेल से चल रही थीं। आज़रबैजानी जनता की सामूहिक बहादुरी और उसकी निःस्वार्थता महान पितृभूमि युद्ध (द्वितीय महायुद्ध) में देखने को मिली।

टिप्पणी : सन् 2006 से यह नियम लागू है कि यदि त्योहार के दिन पहले से ही कोई अन्य छुट्टी है तो उससे अगले दिन को अवकाश-दिवस मान लिया जाता है।

28 मई

 

गणतन्त्र दिवस

बीसवीं सदी को इतिहास को न केवल विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई प्रगति के लिए जाना जाएगा बल्कि राष्ट्रीय पुनर्जागरण, औपनिवेशिक साम्राज्यों के पतन तथा राष्ट्रीयता पर आधारित नए राज्यों के जन्म के लिए भी जाना जाएगा।

सन् 1917 में रूस में घटित हुई फरवरी जनक्रान्ति के फलस्वरूप ज़ार की निरंकुशता का अन्त हुआ। ज़ारशाही द्वारा दबाई हुई जनता ने देश भर में जन-आन्दोलन छेड़ दिया। 28 मई 1918 को पूरब के इस्लाम जगत का पहला धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक राज्य -आज़रबैजान लोकतान्त्रिक गणतन्त्र (1918-1920) - अस्तित्व में आया जो आज़रबैजानी जाति की ऐतिहासिक स्मृति में आज़रबैजानी राज्यत्व के प्रथम प्रयोग की तरह अंकित है।

सन् 1990 से गणतन्त्र दिवस को राज्य की स्वाधीनता के पुनर्स्थापन दिवस के रूप में मनाया जा रहा है।

टिप्पणी : सन् 2006 से यह नियम लागू है कि यदि त्योहार के दिन पहले से ही कोई अन्य छुट्टी है तो उससे अगले दिन को अवकाश-दिवस मान लिया जाता है।

15 जून

 

आज़रबैजानी जनता का जातीय रक्षा दिवस

अक्तूबर 1991 को आज़रबैजान को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। परन्तु स्वतन्त्रता के आरम्भिक वर्षों में राजनीतिक सत्ता का अभाव रहा था जिसके कारण राज्य की नींव पर, सेना तथा राज्य की सुरक्षा के अंगों समेत उसके सारे संस्थानों पर ही गहरा संकट आ गया था। उसी समय आर्मेनिया द्वारा किए गए अनैतिक हमले से स्थिति और भी अधिक बिगड़ गई थी। 1993 की गर्मियों में आज़रबैजान में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो गई थी। मातृभूमि के लिए उस कठिन समय में हैदर अलीयेव ने सत्ता सँभाली। 15 जून 1993 को हैदर अलीयेव आज़रबैजान गणतन्त्र की सर्वोच्च सोवियत के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। इस तरह 15 जून की तिथि हमारे इतिहास में 'जातीय रक्षा दिवस' के रूप में दर्ज हो गई है। जून 1997 को मिल्ली मजलिस ने आम जनता की राय को मानते हुए इस दिन को त्योहार घोषित कर दिया।

टिप्पणी : सन् 2006 से यह नियम लागू है कि यदि त्योहार के दिन पहले से ही कोई अन्य छुट्टी है तो उससे अगले दिन को अवकाश-दिवस मान लिया जाता है।

26 जून

 

आज़रबैजान गणराज्य का सशस्त्र सेना दिवस

9 अक्तूबर 1991 को आज़रबैजान गणतन्त्र की सर्वोच्च सोवियत ने देश की सेना के गठन का विधेयक पारित किया।

आज़रबैजान के राष्ट्रपति द्वारा 22 मई 1998 को जारी किए गए आदेश के आधार पर 26 जून का दिन सशस्त्र सेना दिवस घोषित किया गया।

टिप्पणी : सन् 2006 से यह नियम लागू है कि यदि त्योहार के दिन पहले से ही कोई अन्य छुट्टी है तो उससे अगले दिन को अवकाश-दिवस मान लिया जाता है।

18 अक्तूबर

 

राष्ट्रीय स्वतन्त्रता दिवस

30 अगस्त 1995 को आज़रबैजान गणतन्त्र की सर्वोच्च सोवियत के असाधारण अधिवेशन में 'आज़रबैजान गणतन्त्र की राष्ट्रीय स्वतन्त्रता' की घोषणा पारित की गई थी।

18 अक्तूबर 1991 को आज़रबैजान गणतन्त्र की सर्वोच्च सोवियत के ऐतिहासिक अधिवेशन में "आज़रबैजान गणतन्त्र की राष्ट्रीय स्वतन्त्रता" शीर्षक संवैधानिक विधेयक सर्वसम्मति से पारित हुआ था।

29 अक्तूबर 1991 को आज़रबैजान गणतन्त्र में जनमतसंग्रह किया गया था। जनमतसंग्रह के मतपत्र में केवल एक ही प्रश्न था - "क्या आप संवैधानिक विधेयक "आज़रबैजान गणतन्त्र की राष्ट्रीय स्वतन्त्रता" के पक्ष में हैं?"

आज़रबैजान की जनता ने आज़रबैजान गणतन्त्र की राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के पक्ष में अपना मत दिया।

मई 1992 में मिल्ली मजलिस (संसद) ने आज़रबैजान गणतन्त्र के राष्ट्रगीत को (संगीतकार - उज़ैर गाजीबेकोव, रचनाकार - अहमद जवाद), कुछ समय बाद राष्ट्रध्वज को तथा राजचिह्न को जिसमें आग की लपटों के साथ आठ कोनों वाला तारा बना हुआ है मंज़ूरी दी।

नवम्बर

 

आज़रबैजान गणराज्य का राष्ट्रध्वज दिवस

आज़रबैजान का राजकीय झण्डा पहले-पहल 9 नवम्बर 1918 को आज़रबैजान लोकतान्त्रिक गणराज्य के एक प्रस्ताव के द्वारा राष्ट्रध्वज के रूप में अपनाया गया था जो अप्रैल 1920 तक राज्य का प्रतीक बना रहा था। हमारे इतिहास के सोवियत काल में उस राष्ट्रध्वज का स्थान आज़रबैजान सोवियत समाजवादी गणतन्त्र के झण्डे ने ले लिया था।

आधिकारिक रूप से यह झण्डा नख़चिवान स्वायत्त गणराज्य की सर्वोच्च मजलिस द्वारा 19 जनवरी 1990 को पारित प्रस्ताव का अनुपालन करते हुए आज़रबैजान की भूमि पर नख़चिवान की सर्वोच्च सोवियत के भवन पर फहराया गया था। आठ दिन बाद ही इस प्रस्ताव को आज़रबैजान सोवियत समाजवादी गणतन्त्र की सर्वोच्च सोवियत ने निरस्त कर दिया था और 17 नवम्बर 1990 को सार्वजनिक नेता हैदर अलीयेव की अध्यक्षता में सम्पन्न हुए नख़चिवान स्वायत्त गणराज्य की सर्वोच्च मजलिस के अधिवेशन में नख़चिवान स्वायत्त गणराज्य के राष्ट्रध्वज के रूप में आज़रबैजान लोकतान्त्रिक गणराज्य के झण्डे को ही अपनाया गया। आज़रबैजान गणराज्य की सर्वोच्च सोवियत ने आज़रबैजान की जनता के आग्रह पर 5 फरवरी 1991 को राष्ट्रध्वज विधेयक पारित करके तीन रंगों वाले झण्डे को आज़रबैजान गणराज्य के राष्ट्रध्वज के रूप में अपना लिया।

18 अक्तूबर 1991 को संवैधानिक विधि से अपनी राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की पुनर्स्थापना करके आज़रबैजान गणराज्य ने यह घोषित किया कि आज़रबैजान लोकतान्त्रिक गणराज्य का वैध उत्तराधिकारी आज़रबैजान गणराज्य ही होगा और तदनुसार उसने राष्ट्रध्वज समेत उसी के अन्य राजकीय अभिलक्षणों को भी अपना लिया है।

टिप्पणी : सन् 2006 से यह नियम लागू है कि यदि त्योहार के दिन पहले से ही कोई अन्य छुट्टी है तो उससे अगले दिन को अवकाश-दिवस मान लिया जाता है।

12 नवम्बर

 

संविधान दिवस

सन् 1995 में अपनाया गया आज़रबैजान गणराज्य का संविधान आज़रबैजान का चौथा संविधान है जिसमें ऐतिहासिक दृष्टि से आवश्यक नए संशोधन किए गए हैं। आज़रबैजान गणराज्य के संविधान-निर्माण के इतिहास का बड़ा हिस्सा, मुख्यतः, उस काल का है जब आज़रबैजान सोवियत संघ के अन्तर्गत आता था।

आज़रबैजान का पहला संविधान अखिल आज़रबैजानी सोवियतों के पहले सम्मेलन में 19 मई 1921 को स्वीकृत हुआ था। आज़रबैजान गणराज्य के संविधान का नया संशोधन जो सोवियत संघ के 1924 के संविधान के अनुरूप तैयार किया गया था 14 मार्च 1925 को अखिल आज़रबैजानी सोवियतों के चौथे सम्मेलन में स्वीकृत हुआ था। 21 अप्रैल 1978 को आज़रबैजान सोवियत समाजवादी गणतन्त्र का नया संविधान स्वीकृत हुआ जिसमें देश के इतिहास की नई अवस्था की वास्तविकताओं की अभिव्यक्ति हुई थी। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद नए संविधान के निर्माण की आवश्यकता पैदा हुई। इस उद्देश्य से राष्ट्रपति हैदर अलीयेव की अध्यक्षता में एक विशेष समिति का गठन किया गया और उसके द्वारा निर्मित संविधान 12 नवम्बर 1995 को कराए गए जनमतसंग्रह के द्वारा स्वीकृत किया गया।

सन् 1995 के उस संविधान ने आज़रबैजान गणराज्य के राज्य-निर्माण की नींव रखी। आज़रबैजान गणराज्य के उस संविधान में 5 खण्ड, 12 अध्याय और 158 धाराएँ हैं।

आज़रबैजान गणराज्य का संविधान दिवस 12 नवम्बर को देश भर में मनाया जाता है।

17 नवम्बर

 

राष्ट्रीय पुनर्जागरण दिवस

सन् 1988 के आरम्भिक दिनों में आर्मेनिया ने आज़रबैजान पर सीधा हमला करना शुरू कर दिया था। सोवियत संघ के नेतृत्व की मिलीभगत का फायदा उठाते हुए आर्मेनिया के शासकों ने 2 लाख से अधिक आज़रबैजानियों को उनके स्थायी आवास से खदेड़ने का, वस्तुतः, अनुमोदन कर रखा था।

17 नवम्बर 1988 को बाकू के प्रमुख चौक आज़ादलीग चौक में आज़रबैजान के जनसमुदाय ने अनिश्चितकालीन मीटिंग शुरू कर दी जिसमें आर्मेनिया और क्रेमलिन के नेतृत्व की करतूतों के प्रति विरोध प्रकट किया गया था।

सन् 1992 से 17 नवम्बर को राष्ट्रीय पुनर्जागरण दिवस के रूप में मनाया जाता है।

31 दिसम्बर

 

अनिवासी आज़रबैजानी एकजुटता दिवस

31 दिसम्बर को हर साल 'आज़रबैजानियों की राष्ट्रीय एकजुटता का दिवस' मनाया जाता है। बाहर के देशों में - ईरान (दक्षिणी आज़रबैजान), टर्की, जर्मनी, फ़्रान्स, ब्रिटेन, अमेरिका और निकट पूर्व के देशों में - लाखों आज़रबैजानी रहते हैं। बाहर बसे आज़रबैजानियों की सबसे अधिक संख्या - लगभग 15-20 लाख के करीब - रूस में है।

आज़रबैजान गणराज्य बनने के बाद से आज़रबैजानी जन-विसर्जन (डाइस्परा) की सामाजिक स्थिति में बदलाव आया और बाहर रह रहे आज़रबैजानियों ने अपनी विविध प्रकार की गतिविधियों को आज़रबैजानी जनता की भलाई की दिशा में सक्रिय कर दिया। सन् 1993 में राष्ट्रपति द्वारा जारी किए गए आदेश के अनुसार 31 दिसम्बर को आज़रबैजानी राष्ट्रीय एकजुटता दिवस घोषित किया गया है।

टिप्पणी : सन् 2006 से यह नियम लागू है कि यदि त्योहार के दिन पहले से ही कोई अन्य छुट्टी है तो उससे अगले दिन को अवकाश-दिवस मान लिया जाता है।


 

बकरीद (ईद-उल-ज़ुहा)

बकरीद का धार्मिक त्योहार सारे मुसलमान जगत में हर साल मनाया जाता है। कुर्बानी देने की धार्मिक प्रथा इस्लाम के प्रादुर्भाव के बहुत पहले से ही चली आ रही थी।

हिजरत के दूसरे साल के बाद जब पैगम्बर मोहम्मद मदीना से मक्का को चले गए थे, तब इस्लाम में कुर्बानी की प्रथा के सम्बन्ध में नए विचार पैदा हुए थे, जैसे - गरीबों और अनाथों की मदद करना, अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए दान देना। कुर्बानी की धार्मिक प्रथा पैगम्बर इब्राहीम के साथ घटी एक घटना के बाद शुरू हुई। पैगम्बर इब्राहीम को यह स्वप्न हुआ था कि अल्लाह उनसे कह रहा है कि वह अपने पुत्र इस्माइल को उसे कुर्बान कर दें जिससे कि उसे पता चल जाए कि इब्राहीम को ख़ुदा पर यकीन है। एक सच्चे आस्तिक के नाते इब्राहीम खुदा द्वारा दिए गए कुर्बानी के आदेश को मानने के लिए तैयार थे और उनका पुत्र इस्माइल भी इसके लिए तैयार था।

बकरीद के अवसर पर प्रत्येक प्रत्येक प्रतिष्ठित मुसलमान को चाहिए कि वह कुर्बानी के लिए पशु को लेकर आए और उसका गोश्त गरीबों और अनाथों को बाँटे। कुर्बानी करने का उद्देश्य है - सच्चे विश्वास की ऊँचाई तक इंसान का आत्मिक उत्थान करना। कुरान में कहा गया है - "अल्लाह को न तो पशु का मांस और न खून ही चाहिए, उसे सिर्फ़ आपका यकीन चाहिए।"

बकरीद का त्योहार दो दिन मनाया जाता है।

टिप्पणी : सन् 2006 से यह नियम लागू है कि यदि त्योहार के दिन पहले से ही कोई अन्य छुट्टी है तो उससे अगले दिन को अवकाश-दिवस मान लिया जाता है।


 

रमज़ान

मुसलमानों के लिए रमज़ान का पवित्र महीना हिजरत के दूसरे साल से शुरू हुआ माना जाता है (हिजरी सन् 622)। रमज़ान का महीना लोगों को यह सीख देता है कि शारीरिक कष्ट झेल कर और मन को दृढ़ रख कर अपने पूरे दिल से अल्लाह को प्यार करो। इस महीने में मुसलमान रोज़े रखते हैं।

रोज़ा रखने की प्रथा हिजरत के दूसरे साल से शुरू हुई थी जब मदीने में हजरत मोहम्मद ने मुसलमानों के लिए रमज़ान का महीना मुकर्रर किया। रमज़ान के महीने के आख़िरी दस दिनों में से किसी एक दिन अल्लाह ने मुसलमानों को कुरानशरीफ़ प्रदान की थी। कहा जाता है कि यह घटना 23-24 या 26-27 तारीख़ की रात को घटित हुई थी। इस रात को 'लैलत-अल-कद्र' अर्थात् 'प्रबल और शक्तिशाली रात्रि' कहा जाता है। इस रात के बारे में कुरानशरीफ़ में लिखा है - "इस रात में हमने वास्तव में बल और शक्ति प्रदान किया है, यह रात हजारों महीनों से भी अधिक प्रबल है। इस रात को फ़रिश्ते धरती पर उतर आते हैं और अल्लाह के आदेश की प्रतीक्षा करते हैं। इस रात को सूरज निकलने तक शान्ति रहेगी।" (97 : 1-5)

रोज़े के दौरान दिन के उजाले में भोजन करना, धूम्रपान करना, दाम्पत्य कर्तव्यों का पालन करना आदि वर्जित होता है। बच्चों, गर्भवती महिलाओं, भयंकर रोगग्रस्त लोगों, सैनिकों और सैलानियों को रोज़ा रखना माफ़ होता है। रोज़ों की शुरूआत चाँद के नए महीने से होती है जो 29-30 दिनों तक चलते हैं। कुरानशरीफ़ में कहा गया है - "तब तक खाओ और पीओ, जब तक काले और सफेद धागे में अन्तर कर सकते हो। उसके बाद अँधेरा होने तक रोज़े पर रहो।" (2 : 187)

रोज़े की प्रथा इस्लाम से पहले से चली आ रही है। इस बारे में कुरानशरीफ़ में कहा गया है - "जिस तरह आप लोगों को रोज़ा रखने का आदेश दिया गया है, उसी तरह आपके पूर्वजों को भी दिया गया था।"

रोजों की समाप्ति पर ईद-उल-फ़ित्र त्योहार से होती है। इस दिन सभी सम्पन्न तथा मालदार मुसलमानों को गरीब मुसलमानों की मदद करनी चाहिए। सन् 1993 से रमज़ान का त्योहार राजकीय स्तर पर मनाया जा रहा है।

रमज़ान का त्योहार दो दिन तक मनाया जाता है।

टिप्पणी : सन् 2006 से यह नियम लागू है कि यदि त्योहार के दिन पहले से ही कोई अन्य छुट्टी है तो उससे अगले दिन को अवकाश-दिवस मान लिया जाता है।