`शहीद स्मृति दिवस` (20 जनवरी) के अवसर पर आयोजित अखिल गणतन्त्र समारोह में आज़रबैजान गणराज्य के राष्ट्रपति हैदर अलीयेव द्वारा दिया गया भाषण, 19 जनवरी 2000


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आदरणीय देशवासियो! आदरणीय देवियो और सज्जनो!

`शहीद स्मृति दिवस` आज़रबैजान की जनता के लिए शोक का दिन है। जनवरी में घटित हुई खूनी त्रासदी का यह दसवाँ साल है। उस भयानक रात को शहीद हुए लोगों की स्मृति में मैं फिर से अपना सिर झुकाता हूँ, मैं उन लोगों के सामने नतमस्तक हूँ जिन्होंने अपनी मातृभूमि, आज़ादी और स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे।

20 जनवरी 1990 का दिन आज़रबैजान के इतिहास का सबसे अधिक त्रासदीपूर्ण दिन है। साथ ही यह भी कहना होगा कि उस रात को, उस दिन आज़रबैजान की जनता ने सारी दुनिया को अपनी वीरता, अपने शौर्य और आत्म-बलिदान का प्रदर्शन करके दिखाया था। इसलिए इस दिन हम हमेशा शोक व्यक्त करते हैं। साथ ही हमें इस बात पर अत्यन्त गर्व का अनुभव होता है कि हमारी जनता इतनी वीर, अनम्य और अडिग है।

आज़रबैजान की जनता के इतिहास में, ख़ासकर बीसवीं सदी में, कई त्रासदियाँ घटित हुई हैं - सन् 1918 में आर्मेनियाइयों द्वारा आज़रबैजान के लोगों के साथ की गई हिंसा और जाति-संहार; आज़रबैजान में सोवियत सत्ता के स्थापित होने के बाद हमारी जनता और हमारे राष्ट्र का दमन तथा आतंक; सन् 1937-1938 के दौरान हमारी जनता का सामूहिक दमन; आज़रबैजान के विरुद्ध सैन्य हमला करने के उद्देश्य से सन् 1988 में नागोर्नी काराबाख़ को लेकर टकराव की शुरुआत और हमारे बेटों का बलिदान।

इन सब त्रासदियों के साथ-साथ आज़रबैजान की जनता पर सबसे बड़ी चोट, सबसे बड़ा हमला तथा सबसे बड़े आतंक की घटना थी 20 जनवरी 1990 को घटित हुई त्रासदी। मेरे द्वारा ऊपर गिनाई गईं त्रासद घटनाएँ तथा और भी ऐसी घटनाएँ जो मुझे अभी शायद याद नहीं आ रही हैं, अलग-अलग व्यक्तियों और समूहों के विरूद्ध केन्द्रित थीं। उदाहरण के लिए, 1918 में आर्मेनियाइयों द्वारा किया गया जाति-संहार; आर्मेनिया-आज़रबैजान सम्बन्धों को लेकर आर्मेनिया का उद्देश्य यही होता था कि आज़रबैजानियों की भूमि पर कब्जा कर लिया जाए और आज़रबैजान के लोगों का संहार कर दिया जाए। परन्तु जनवरी 1990 की घटनाएँ और त्रासदी पिछली सभी घटनाओं और यातनाओं से अलग है क्योंकि उस रात को तो सोवियत शासन ने, सोवियत सत्ता और आज़रबैजान की कम्युनिस्ट सत्ता ने ही आज़रबैजान की जनता के विरुद्ध सामूहिक हमला कर दिया था जबकि इतने सालों से हम सोवियत शासन के ही अधीन थे। अर्थात् स्वयं राज्य द्वारा, सरकार द्वारा और सत्ता द्वारा अपनी ही जनता के विरुद्ध आयोजित हमला सबसे अधिक भयानक और सबसे अधिक त्रासद ही कहा जाएगा जो उससे पहले घटित हुईं सारी त्रासदियों से राजनीतिक दृष्टि से बिल्कुल अलग ही है।

इतिहास की ओर पीछे मुड़ कर देखें तो ऐसा कहा जा सकता है कि सोवियत सत्ता स्थापित होने के बाद से लेकर जनवरी की इन घटनाओं तक सोवियत संघ में सोवियत शासन की ओर से अपनी ही जनता और अपने ही नागरिकों के खिलाफ़ इस तरह का सैन्य हमला कभी भी और कहीं भी नहीं किया गया था। सोवियत संघ की कहीं की भी जनता के खिलाफ़ ऐसा हमला नहीं हुआ था। किसी भी गणराज्य और किसी भी राष्ट्र के खिलाफ़ ऐसा हमला नहीं किया गया था। यह तो पूरी तरह हमारे ही विरुद्ध, आज़रबैजान की जनता के विरुद्ध हमला था। यह न केवल सोवियत नेतृत्व का हमला और आतंक था, इसमें सोवियत शासन के साथ-साथ आज़रबैजानी सत्ता की भी मिलीभगत थी जिनमें उस जमाने में पूरा ऐक्य था और जिन्होंने मिलकर ही अपनी ही जनता को दबाने और तोड़ने की कोशिश की थी।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत सत्ता ने कई देशों पर हमले किए थे। सन् 1956 में सोवियत सेना को हंगरी भेजा गया था, इसलिए कि हंगरी की जनता सोवियत विचारधारा से सहमत नहीं थी, वह अपने मार्ग पर जाना चाहती थी और उसे अपने रास्ते से मोड़ने और उसे दबाने के वास्ते हंगरी में सोवियत फ़ौज को उतारा गया था जिसके परिणामस्वरूप वहाँ बहुत सारा खून बहा था। जनता को बलिदान देना पड़ा था। अन्ततः सोवियत विचारधारा ने वहाँ अपनी पकड़ मजबूत ही कर ली थी।

सन् 1968 में चेकोस्लोवाकिया में घटित हुईं घटनाओं का परिणाम यह हुआ कि समाजवादी देशों के चंगुल से बाहर निकलना उसके लिए खतरनाक हो गया। उस समय भी सोवियत संघ ने चेकोस्लोवाकिया में अपने सैनिक उतारे थे और इस तरह वहाँ चल रहे आन्दोलन को चेतावनी देकर अपनी सत्ता मजबूत कर ली थी।

सन् 1979 में सोवियत संघ ने बहुत भारी संख्या में अपने सैनिक उन ताकतों की मदद करने के लिए अफ़गानिस्तान में भेजे थे जो सोवियत विचारधारा के आधार पर सरकार बनाना चाह रहे थे। उस समय भी बहुत खून बहा था।

मैं इन सब बातों को क्यों याद कर रहा हूँ? इसलिए कि इन सब मामलों में सोवियत सत्ता ने, सोवियत शासन ने इस तरह के आक्रमण अपनी सत्ता स्थापित करने और उसे मजबूत करने के उद्देश्य से किए थे।

परन्तु आज़रबैजान की जनता तो 70 से भी अधिक सालों से सोवियत राज्य का ही हिस्सा थी, हम इसी देश के नागरिक थे और हम सोवियत सत्ता के नेतृत्व में ही जी रहे थे। अर्थात् सोवियत सत्ता के लिए, कम्युनिस्ट सत्ता के लिए हमारी जनता अपनी सगी होनी चाहिए थी। मगर ऐसा नहीं हुआ। कुल मिला कर तो एक अर्थ में इसे आज़रबैजान की जनता के प्रति सोवियत दृष्टि का परिणाम ही कहा जाएगा। स्पष्टतः, इसका सम्बन्ध आर्मेनिया द्वारा आज़रबैजान के विरूद्ध किए गए हमले से था जिसकी शुरुआत 1987-1988 में हुई थी।

1987 के अन्त और 1988 के आरम्भ में आर्मेनिया के शासकों और वहाँ की राष्ट्रवादी ताकतों ने नागोर्नी काराबाख़ को आर्मेनिया में मिलाने की कोशिश शुरू कर दी थी। ऐसी कोशिशें पहले भी की गई थीं जिनकी शुरुआत सन् 1923 में ही हो गई थी जब आज़रबैजान के अन्तर्गत नागोर्नी काराबाख़ स्वायत्त जिला बनाया गया था। परन्तु वे कोशिशें असफल रही थीं। इसलिए कि आज़रबैजान का नेतृत्व अपने गणतन्त्र की रक्षा करने में समर्थ था और इसलिए भी कि सोवियत शासन देश के ढाँचे में किसी तरह के बदलाव को खतरनाक समझता था। पर 1987 में, हो सकता है कि उससे पहले से ही, आर्मेनिया में नागोर्नी काराबाख़ को आज़रबैजान से अलग करने और उसे आर्मेनिया में मिलाने की बातें होने लगी थीं। तब यहाँ भी आन्दोलन शुरू हो गया और यहीं पर दोहरे मानदण्ड देखने में आए - सोवियत सरकार तथा कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं का आज़रबैजान और आर्मेनिया के प्रति दृष्टिकोण अलग-अलग तरह का था।

स्वाभाविक है कि उस समय जब सोवियत संघ अभी भी बहुत शक्तिशाली था तब उसके नेता यदि चाहते तो चेतावनी दे सकते थे और साथ ही यदि आज़रबैजान के नेताओं की अपनी जनता, अपनी मातृभूमि और अपनी धरती के प्रति निष्ठा होती तो वे इस समस्या को आने से रोक सकते थे। परन्तु मास्को में बैठे हुए लोगों की इसे रोकने की इच्छा ही नहीं थी, उन्होंने तो, उल्टे, इसके लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा कीं। इधर आज़रबैजान के नेता हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे और इस तरह फरवरी 1988 में नागोर्नी काराबाख़ की घटना घटित हुई। उसके बाद आज़रबैजान में नेतृत्व-परिवर्तन हुआ - मानो कि आर्मेनिया-आज़रबैजान के टकराव का हल ढूँढने के लिए ताकि यहाँ के नेतृत्व को मजबूत बनाया सके। मगर नए नेतृत्व ने न केवल अपनी अयोग्यता का, या कहें, अक्षमता का प्रदर्शन किया बल्कि उसने तो देशद्रोह का रास्ता अपनाया। यह आज़रबैजान के नेताओं द्वारा किया गया देशद्रोह था। उधर सोवियत संघ के नेताओं की आज़रबैजान के प्रति बेरुखी ने, बल्कि मैं तो कहूँगा कि उनके नकारात्मक दृष्टिकोण ने, नागोर्नी काराबाख़ की घटना को युद्ध में परिवर्तित कर दिया जिससे आज़रबैजान को भारी धक्का पहुँचा। स्वाभाविक है कि 20 जनवरी का दिन इस नीति की, इस पूरी शृंखला की एक बड़ी कड़ी थी।

वास्तव में ही उस दिन हमारी जनता अपनी धरती और अपनी प्रभुसत्ता की रक्षा के लिए उठ खड़ी हो गई थी। जनता के इस तरह उठ खड़े होने का मुख्य कारण था आज़रबैजान के प्रति सोवियत सरकार का अन्यायपूर्ण दृष्टिकोण और साथ ही यह भी कि आज़रबैजान के नेताओं ने अपनी धरती, अपने राष्ट्र तथा अपनी जनता की रक्षा के लिए कोई कदम नहीं उठाए थे। इन सब कारणों की वजह से आज़रबैजान की जनता उठ खड़ी हुई थी और उसने अपनी ताकत भी दिखा दी थी। लोग शहरों के चौकों पर निकल आए थे, सड़कों पर निकल आए थे।

सारी जनता को दण्डित करने के लिए, उसे तोड़ देने के लिए और इस तरह नागोर्नी काराबाख़ के मसले को आर्मेनिया के पक्ष में हल करने के लिए आज़रबैजान को धक्का देना ज़रूरी था और वह धक्का दिया भी गया था। आज़रबैजान के विरुद्ध सैनिक हमला कर दिया गया। आज़रबैजान को शरीरी चोट पहुँचाई गई। आज़रबैजान को राजनीतिक चोट पहुँचाई गई। आज़रबैजान को नैतिक चोट पहुँचाई गई। इसके दोषी सोवियत संघ के नेता भी थे और आज़रबैजान के नेता भी। आज के दिन यहाँ पर जो अभिलेख खोले गए हैं उनसे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है।

आज के समारोह में भाषण देनेवाले हमारे सम्माननीय बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों ने, शहीद की माँ ने, शहीद की बेटी ने और उन लोगों ने जिनके 20 जनवरी की उस रात को अंग-भंग हो गए थे अपनी बात पूरी सच्चाई के साथ सामने रखी है। मैं तो आपसे यही कहूँगा कि आज के कार्यक्रम के आरम्भ होने से लेकर अब तक मेरे मन में एक गहरी सिहरन दौड़ रही है और, निश्चय ही, आपके मन में भी ऐसा ही हो रहा होगा - क्योंकि उस ऐतिहासिक घटना-चित्र के प्रदर्शन का, उन भयानक घटनाओं के चित्रण का तथा वक्ताओं द्वारा अभिव्यक्त विचारों और उनके शब्दों का हम पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा है। इसीलिए मैं बहुत भावुक हो गया हूँ और इतना भावुक होकर अपनी बात कह रहा हूँ। कुल मिला कर मैं यही कहूँगा कि इस रूप में पहली बार आयोजित आज का यह समारोह हमारे इतिहास, हमारे राष्ट्र और हमारी जनता के प्रति हमारे अपार प्रेम की ही अभिव्यक्ति है। इस समारोह के आयोजकों और आज के सभी वक्ताओं का मैं धन्यवाद करता हूँ।

आज का यह आयोजन बहुत अधिक राजनीतिक, नैतिक तथा शिक्षापरक महत्व का है। सबसे पहले तो इसलिए कि हमें अपने इतिहास को भूलना नहीं चाहिए, उसे विकृत नहीं करना चाहिए। इतिहास तो इतिहास ही होता है, उसे उसी तरह लिखा जाना चाहिए और पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे को सौंपा जाना चाहिए जैसा कि वह वास्तव में है।

जनवरी की उस त्रासद रात को गुजरे दस साल हो गए हैं। इन दस सालों में आज़रबैजान में नए बच्चे पैदा हो चुके हैं। इस समय जिन बच्चों का आयु दस साल है वे सन् 1990 में पैदा हुए थे। मुझे बताया गया है कि जनवरी की उस रात को आज़रबैजान के नागरिकों में से 135-136 लोग शहीद हुए थे और बहुत सारे लोग ज़ख्मी हुए थे। साथ ही उसी रात को आज़रबैजान में 500 से ज़्यादा बच्चे पैदा भी हुए थे। इसका मतलब यह है कि हमारी जनता जीवित है, राष्ट्र जीवित है, आगे बढ़ रहा है और किसी भी तरह का हमला, किसी भी तरह का आतंक, किसी भी तरह की गद्दारी हमारी जनता की प्रगति को रोक नहीं सकती है।

जो भी हो, हम उन दिनों के साक्षात् गवाह हैं। दस साल की उम्र का बच्चा इसके बारे में केवल हमसे ही जान सकता है। 20 साल की उम्र के जवान भी, जो उस समय दस साल के थे, उन दिनों जो कुछ हुआ था उसे, शायद, समझे ना हों या समझने की स्थिति में ही न रहे हों। इसीलिए समय-समय पर हमें अपने इतिहास के गौरवशाली और सफल पन्नों के साथ-साथ त्रासद पन्नों को भी याद करते रहना चाहिए और उनके बारे में हर नई पीढ़ी को बताते रहना चाहिए। इस सम्बन्ध में 20 जनवरी की त्रासदी और उस समय जनता द्वारा प्रदर्शित वीरता, साहस तथा एकता हम सबके लिए - वर्तमान पीढ़ी के लिए भी और भावी पीढ़ी के लिए भी - आदर्श होने चाहिए। उस घटना से सभी को शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए।

यहाँ पर प्रदर्शित अभिलेखों, विभिन्न भाषणों दिखाई गई फ़िल्मों से यह स्पष्ट हो जाता है कि 19-20 और 20-21 जनवरी को आज़रबैजान कैसी कठिन परिस्थिति में रहा होगा। जब आज़रबैजान में और बाकू जैसे शहर में इतनी सारी सैनिक यूनिटें, हथियारबन्द गाड़ियाँ और टैंक घुस आए थे, तब स्वाभाविक है कि कोई भी व्यक्ति शान्त नहीं रह सकता था। उस समय बाकू शहर, और सिर्फ़ बाकू ही नहीं, सारा-का-सारा आज़रबैजान विचलित हो उठा था। उन दिनों की घटनाओं का आज यहाँ पर प्रस्तुत किया गया विश्लेषण क्या दिखाता है? वह यही दिखाता है कि बहुत भारी नुकसान झेलने के बावजूद जनता न तो टूटी और न ही झुकी। पर जनता के नेता अन्त तक गद्दार-के-गद्दार ही बने रहे।

समझ लें कि किसी का कोई प्रिय व्यक्ति मारा गया। तब उसके निकट के लोग, नाते-रिश्तेदार, दोस्त और स्टाफ़ के लोग उसके परिवार के साथ शोक बँटाने के लिए दफ़नाने के समय और उसके अन्तिम भोज में आते ही हैं। इस मामले में तो आज़रबैजान की जनता के विरुद्ध हमला किया गया था और हमारी जनता को भारी नुकसान हुआ था। जनता और राष्ट्र मिल कर इस त्रासदी को शुरू करनेवालों के खिलाफ़ नफ़रत प्रकट करते हैं, शहीदों को उनकी अन्तिम यात्रा पर ले जाते हुए उन्हें विदाई देते हैं। पर आज़रबैजान के नेता लोग इस सब से दूर ही रहे थे, वे भाग रहे थे, कहीं जाकर छिप रहे थे। केवल यही तथ्य इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि कौन क्या है।

आज़रबैजान की सर्वोच्च सोवियत के कुछ सदस्यों ने बहुत-सी रुकावटों को दूर करके सर्वोच्च सोवियत का विशेष अधिवेशन बुलाया। उस अधिवेशन से आज़रबैजान के प्रमुख कवि बख़्तियार वहाबज़ादे भी अपने आप को दूर नहीं रख सके जबकि अपने पूरे जीवन में उन्होंने कभी कोई सभा नहीं की थी, केवल कविताएँ ही लिखी थीं तथा आज़रबैजान की काव्य-कला को विकसित किया था। अर्थात् उन्हें इस तरह का कोई अनुभव नहीं था, परन्तु उनके दिल में कोई ख़ौफ़ नहीं था, उन्हें अपनी जनता से प्यार था, उन्हें किसी बात का डर नहीं था। इसलिए भी कि उन्होंने हमेशा ही साहस के साथ लोगों से आँखें मिलाई हैं और कभी किसी को धोखा नहीं दिया है।

बिल्कुल यही बात स्वर्गीय इस्माइल शिहली तथा अन्य बुद्धिजीवियों के बारे में भी कही जा सकती है। यहाँ पर कुछ फ़िल्मों के अंश दिखाए गए थे। खेद की बात है कि सारी फ़िल्में बच नहीं पाई हैं। फिर भी जो हमने देखा उनसे लोगों के चेहरे पूरी तरह सामने आ जाते हैं। ऐसा कैसे हुआ कि कवि बख़्तियार वहाबज़ादे, लेखक इस्माइल शिहली तथा बुद्धिजीवियों के अन्य प्रतिनिधि या फिर सर्वोच्च सोवियत के कुछ सदस्य तो इस विषय पर विचार करने के लिए सभागार में इकट्ठा हो गए और, दूसरी ओर, आज़रबैजान के नेता लोग भाग खड़े हुए और कहीं पर छिप गए? अपनी इस करतूत से जनता का नेतृत्व करने का अधिकार उन्होंने पूरी तरह खो दिया।

उस अधिवेशन में पारित प्रस्तावों और सम्बोधनों का - जिन्हें यहाँ सुनाया गया है - ऐतिहासिक महत्व है। हमें उनकी कीमत समझनी होगी। व्यक्तिगत रूप से इन अभिलेखों के बारे में मेरे यही विचार हैं। परन्तु कुछ दिनों के बाद जब ये भाग खड़े हुए और छिपे हुए लोग फिर से आज़रबैजान की सत्ता में वापस लौट कर आए तो इन सब अभिलेखों को भुला दिया गया था, उन्हें जनता की नज़रों से छिपा कर अलग रख दिया गया था। इस सम्बन्ध में भी यहाँ पर वास्तविक तथ्य उद्धृत किए गए थे जिन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं है।

इस तरह यह कहा जा सकता है कि एक तो 20 जनवरी से पहले सोवियत सरकार और आज़रबैजानी सत्ता दोनों ने मिल करके आज़रबैजान की जनता के खिलाफ़ हमला किया था और फिर बाद में दोनों ही पक्षों ने उसका औचित्य सिद्ध करने की कोशिश की थी। मास्को में तो ऐसा माहौल बना हुआ था मानो कि कुछ भी घटित नहीं हुआ हो। खुद आज़रबैजान में कोई नेता भाग खड़ा हुआ था तो दूसरा उसकी जगह आ बैठा था, और इस तरह जनता को भी और उसके घटित हुई त्रासदी को भी भुला दिया गया था। सब कुछ ही भुला दिया गया था और बड़े व्यवस्थित ढंग से इस मसले को ही भुला देने की कोशिश की जा रही थी। गद्दारों ने, उन लोगों ने जिन्होंने शासन करने का अधिकार खो दिया था फिर से अपने व्यक्तिगत हितों को जनता और राष्ट्र के हितों से ऊपर रखा था। यह सब ऐतिहासिक वास्तविकता है।

जो भी हो, आज हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि हमारी जनता ने, मैं फिर से कह रहा हूँ, पौरुष और साहस का प्रदर्शन किया है।

आज दिखाई गई फ़िल्मों के अंशों में शहीदों को दफ़नाए जाने की रस्म को देखते हुए भावुक हुए बिना नहीं रहा जा सकता है। मुझे लगता है कि - सभी को कम-से-कम यह इतिहास तो मालूम ही है कि - आज़रबैजान में दफ़नाने की रस्म में इतने सारे लोगों की ऐसी प्रभावशली उपस्थिति पहले कभी देखने में नहीं आई थी। उस समय शेख़-उल-इस्लाम अल्लाहशुकुर पाशाज़ादे द्वारा किया काम भी बहुत प्रशंसनीय था - एक तो मिख़ाईल गोर्बाचोव को सम्बोधन करते हुए चिट्टी लिखना और दूसरे, इस मसले पर उनका दृष्टिकोण अर्थात् इस अपराध को करनेवालों के प्रति घृणा-भाव व्यक्त करना और दफ़नाने की रस्म का अदा करना। यह सर्वविदित है कि आज़रबैजान की सत्ता की सभी शाखाओं के नेता लोग इन सब बातों से दूर ही रहे थे। आप देखते ही हैं कि इससे बड़ा नैतिक पाप, या कहें, नैतिक वंचना हो ही नहीं सकती।

पर जनता किसी भी बात से डरी नहीं। जनता डरी नहीं कि ये टैंक फिर से उसे कुचल सकते हैं। आज़ादलीग चौक में, सभी सड़कों पर, सीधे नागोर्नी पार्क तक लोगों का हुजूम जमा हो गया था।

तब मैं आज़रबैजान में नहीं था। मैंने तुरन्त ही अपने विचार अभिव्यक्त कर दिए थे। आपको मालूम होना चाहिए कि उस समय मैं बीमार पड़ा हुआ था। बीमारी की वजह से पहले मैं अस्पताल में था, फिर स्वास्थ्य-लाभ के लिए मास्को के बाहर एक सैनिटोरियम में था। इसके बावजूद अपने बच्चों के साथ आकर मैंने अपने विचार अभिव्यक्त किए। इसके अलावा मैं और कुछ नहीं कर सकता था। आज मैं उन सब आज़रबैजानी नागरिकों का धन्यवाद करता हूँ, उन सब लोगों का धन्यवाद करता हूँ जिन्होंने शहीदों को दफ़नाने के लिए बिल्कुल ठीक जगह का चयन किया है और उन्हें यहाँ नागोर्नी पार्क में दफ़नाया है। ऐसा करके उन्होंने काफ़ी हद तक पिछली गद्दारी के प्रति अपने दृष्टिकोण को भी अभिव्यक्त कर दिया है।

सन् 1918 में आर्मेनियाई लोगों द्वारा किए गए कत्लों के शिकार लोगों को वहाँ पर दफ़नाया गया था। वहाँ कब्रिस्तान की नींव रखी गई थी। वह कब्रिस्तान सन् 1930 में नष्ट कर दिया गया था और वहाँ नागोर्नी पार्क बना कर कीरोव स्मारक स्थापित कर दिया गया था। इतिहास का सत्य इस बात में निहित है कि उस समय उन कब्रों के खिलाफ़ की गई गद्दारी का अब खुलासा हो गया है और फिर से शहीदों को यहाँ पर दफ़ना दिया गया है।

अपने कर्तव्य को निभाते हुए, इस घटना की शुरुआत से ही अर्थात् 21 जनवरी 1990 से लेकर आज तक मैं उस घटना का खुलासा करने की कोशिश करता रहा हूँ, कर रहा हूँ और अन्त तक करता रहूँगा। दोषियों की जिम्मेदारी ठहराने की पूरी मैं कोशिश करता रहूँगा। कोई भी व्यक्ति जनता के प्रति किए गए अपने अपराध की जिम्मेदारी से भाग नहीं सकता है। कोई शारीरिक रूप से चाहे भाग भी जाए, इतिहास के सामने वह अपराधी ही बना रहेगा।

मेरी यह भी इचछा थी कि शहीदल्यार हियाबान (शहीद पथ) में "अमर ज्योति" स्मारक बनवाऊँ। आज़रबैजान के राष्ट्रपति के रूप में यह मेरा कर्तव्य भी था। आज मुझे इस बात पर कुछ सन्तोष है कि मैंने इस कर्तव्य को पूरा कर लिया है। वास्तव में ही, जैसा कि यहाँ कहा गया है, यह स्थल शपथ और विश्वास का तथा हमारे यहाँ का सबसे पवित्र स्थल बन गया है। कई दिनों से हम देख रहे हैं कि लोग अपने दिल की आवाज़ सुन कर हाथों में फूल लिए इन कब्रों पर आ रहे हैं, "अमर ज्योति" के सामने तथा अन्य कब्रों के सामने अपने शीश नमन कर रहे हैं। मेरा विश्वास है कि भविष्य में भी हमेशा यह स्थान हमारे युवाओं के लिए शपथ-स्थल का काम देगा, अपनी जनता, अपने राष्ट्र तथा अपनी मातृभूमि के प्रति निष्ठा की शपथ ग्रहण करने का स्थल बना रहेगा। साथ ही नए परिवारों को बना रहे हमारे युवाओं के लिए भी एक दूसरे के प्रति निष्ठा अभिव्यक्त करने का शपथ-स्थल बनेगा।

कहना होगा कि उस त्रासदी ने हमारे देश को कुछ बड़ी प्रक्रियाओं को क्रियान्वित करने की प्रेरणा भी प्रदान की। आज़रबैजान को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। अपने स्वतन्त्र देश में रह रही आज़रबैजान की जनता के लिए अब यह नवाँ साल चल रहा है।

रोज के जीवन में हमारे सामने बहुत-सी कठिनाइयाँ और समस्याएँ आती ही हैं। हम सब इस समस्या को लेकर बहुत चिन्तित हैं कि हमारी भूमि पर आर्मेनिया की सशस्त्र सेनाओं ने कब्जा कर रखा है और इस भूमि से भगाए गए हमारे दस लाख से भी अधिक नागरिक तम्बुओं में अपना जीवन काट रहे हैं। और भी बहुत-सी समस्याएँ हैं। हम कठिन और जटिल समय से गुज़र रहे हैं और इससे पार भी पा लेंगे। कब्जा की गई भूमि को मुक्त करवाया जाएगा, हमारे नागरिक अपने-अपने घरों को वापस लौटेंगे, आज़रबैजान की प्रभुसत्ता सुनिश्चित की जाएगी क्योंकि अब आज़रबैजान स्वतन्त्र देश है और किसी भी दूसरे देश के पास आज़रबैजान पर आक्रमण करने का कोई वैध आधार नहीं है।

हमारे शहीदों की स्मृति का सबसे बड़ा स्मारक हैं - आज़रबैजान की प्रभुसत्ता, स्वतन्त्र आज़रबैजान, विधिसम्मत, लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष आज़रबैजान तथा देश में इस समय घटित हो रहीं सकारात्मक प्रक्रियाएँ। हमारे सारे शहीदों को, न केवल 20 जनवरी के शहीदों को, बल्कि हमारी उन सन्तानों को भी जो मातृभूमि की और अपनी धरती की लड़ाइयों में शहीद हुई थीँ, चैन की नींद मिले क्योंकि उनके सपने, उनकी हार्दिक इच्छाएँ पूरी हो गई हैं - आज़रबैजान को अपनी राष्ट्रीय स्वतन्त्रता प्राप्त हो गई है।

आज अपने उन शहीदों को याद करते हुए मैं यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि आज़रबैजान की स्वतन्त्रता को कोई भी और कभी भी छीन नहीं सकेगा, हम कभी भी किसी भी अन्य देश के अधीन नहीं रहेंगे। तरह-तरह की कठिनाइयों और हम पर डाले जाने वाले दबावों के बावजूद आज़रबैजान की राष्ट्रीय स्वतन्त्रता बनी रहेगी और वह विकसित होती रहेगी। स्वतन्त्र लोकतान्त्रिक आज़रबैजान, विधिसम्मत और धर्मनिरपेक्ष आज़रबैजान ही हमारे शहीदों का सबसे भव्य स्मारक होगा।

मैं एक बार फिर आज की इस समृति-सभा के सभी आयोजकों के प्रति तथा आज के सभी वक्ताओं के प्रति भी आभार प्रकट करता हूँ। खुदा हमारे शहीदों की आत्माओं को शान्ति प्रदान करे।

(समाचार-पत्र "बकीन्स्की रबोची", 20 जनवरी 2000).