सम्माननीय साथियो, देवियो और सज्जनो!
जैसा कि आपको मालूम है, कई सालों तक मैं आज़रबैजान के पार्टी संगठन का अध्यक्ष रहा हूँ, मैं सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति के पोलितब्यूरो का सदस्य चुना गया था और सोवियत संघ की मन्त्रिपरिषद का प्रमुख उपाध्यक्ष भी रहा था। अब दो साल से अधिक समय से मैं पेंशन पर हूँ। मुझे दिल का दौरा पड़ गया था और बीमारी की वजह से मुझे सेवामुक्त होना पड़ा था। दिसम्बर 1982 में मैं आज़रबैजान से बाहर चला गया था। आज पहली बार मैंने आज़रबैजान सोवियत समाजवादी गणतन्त्र के मास्को स्थित स्थायी प्रतिनिधित्व कार्यालय की देहली को लाँघा है। आज़रबैजान में घटी दुर्घटना मुझे यहाँ ले आई है। मुझे इस घटना के बारे में कल सवेरे पता चला। स्वाभाविक है कि मैं इस घटना के प्रति उदासीन नहीं रह सकता था। मास्को स्थित हमारा यह स्थायी प्रतिनिधित्व कार्यालय आज़रबैजानी धरती के एक लघु द्वीप की तरह है और मेरे यहाँ आने का सबसे बड़ा कारण है समस्त आज़रबैजानी जनता के प्रति अपनी सहानुभूति अभिव्यक्त करना है क्योंकि इस दुर्घटना में बहुत सारे लोगों की जानें चली गई हैं। दूसरी बात यह है कि इस प्रश्न के प्रति मैं अपना दृष्टिकोण भी बता देना चाहता हूँ। मास्को में आज़रबैजान के स्थायी प्रतिनिधि ज़ोहराब इब्राहीमोव से मैं निवेदन करूँगा वे मेरे शब्दों को, मेरी गहरी वेदना तथा मेरी हार्दिक सहानुभूति को आज़रबैजानी जनता तक पहुँचा दें। खेद का विषय है कि इस समय मेरे पास और कोई रास्ता नहीं है।
आज़रबैजान में घटी घटनाओं के बारे में मैं यही कहूँगा कि ये घटनाएँ कानूनविरोधी, लोकतन्त्रविरोधी, मानवतावादी सिद्धान्तों तथा हमारे देश में विधिसम्मत राज्य के निर्माण के पूरी तरह विरुद्ध हैं। आज़रबैजान में जो स्थिति आज पैदा हुई है उसके पीछे कुछ विशेष कारण हैं। मैं उनके विस्तार में नहीं जाना चाहता हूँ क्योंकि इसमें बहुत अधिक समय लग जाएगा। पिछले दो सालों से नगोर्नी कराबाख़ और उसके आसपास के क्षेत्र को लेकर आज़रबैजान और आर्मेनिया के बीच जातीय संघर्ष चल रहा है। इन दो सालों में आज़रबैजान और आर्मेनिया के नेताओं तथा सर्वोच्च राजनीतिक-पार्टी नेतृत्व को इस समस्या को सुलझा लेना चाहिए था जिससे कि यह जातीय युद्ध और आपसी टकराव समाप्त हो जाता और ऐसी परिस्थिति बन जाती कि प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति या राष्ट्रीयता का हो हमारे संघीय ढाँचे वाले सोवियत समाजवादी गणतन्त्र संघ में स्वतन्त्र होकर रह सके।
मेरा तो यह सोचना है कि इन दो सालों में इस दिशा में पर्याप्त कदम उठाए ही नहीं गए। यदि नगोर्नी कराबाख़ में जटिल स्थिति पैदा होते समय शुरू में ही पार्टी के सर्वोच्च राजनीतिक नेतृत्व द्वारा आवश्यक कदम उठा लिए गए होते तो दो सालों से दोनों ही तरफ़ से बढ़ते हुए तनाव और जान-माल के नुकसान का सामना हमें आज नहीं करना पड़ता और न ही 19-20 जनवरी 1990 की रात को की गई सैन्य कार्यवाही घटित हुई होती जिसमें अनेकों लोगों की जानें चली गईं।
निश्चय ही, इसमें सबसे बड़ा दोष आज़रबैजान की कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति के प्रथम सचिव वज़ीरोव का है। इतने ऊँचे पद पर रहते हुए भी उन्होंने आज़रबैजान की स्थिति को काबू में करने के लिए कुछ भी नहीं किया। उल्टे, अपने त्रुटिपूर्ण कार्यकलापों, अपनी अनुचित कार्यशैली तथा गलत राजनीतिक चालों के द्वारा उन्होंने अपने आपको जनता का विरोधी बना दिया, उन्हें जनता का विश्वास बिल्कुल भी प्राप्त नहीं हुआ और जनता तथा उनके बीच खाई पैदा हो गई। जनता गुस्से से भर गई। कई महीनों से बाकू तथा आज़रबैजान के बहुत-से दूसरे शहरों और जिलों में सभाएँ होती रही हैं जिनमें आज़रबैजान के पार्टी नेतृत्व के इस्तीफ़े की माँग की जाती रही है। इसमें सबसे प्रमुख माँग थी वज़ीरोव के इस्तीफ़े की। पता नहीं, अब तक यह मसला क्यों नहीं हल किया गया था और आखिरकार कल जब बाकू में सेना बुला ली गई और जान-माल का नुकसान हो गया, तब वज़ीरोव आज़रबैजान से, कहना होगा, भाग खड़े हुए। यह बहुत भारी गलती थी। किन्तु सबसे बड़ी गलती तो यह थी कि ऐसी कठिन स्थिति में ऐसे व्यक्ति को आज़रबैजान की कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति का प्रथम सचिव बनाया गया था जो इसके लिए सर्वथा अयोग्य था। परन्तु बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है।
अब मैं उस त्रासदी के बारे में कुछ कहना चाहूँगा जो 19-20 जनवरी की रात को घटित हुई और जो अभी भी जारी है। मेरे विचार से समस्या का राजनीतिक हल निकालने के विकल्प अभी भी बचे हुए थे। वस्तुतः, न तो आज़रबैजान के नेतृत्व ने और न ही सर्वोच्च राजनीतिक नेतृत्व ने इन विकल्पों का इस्तेमाल किया। हमारी सीमा के उल्लंघन को रोका जा सकता था। तीन महीने पहले ही सीमा-रेखा के सम्बन्ध में लोगों ने अपनी माँगें बता दी थीं। परन्तु नेतृत्व का कोई भी प्रतिनिधि उनसे मिलने, स्पष्टीकरण करने तथा उचित कदम उठाने को तैयार नहीं था।
मैं फिर से दोहराना चाहता हूँ कि लोगों को शान्त करने की सम्भावनाएँ समाप्त नहीं हुई हैं। यदि आज़रबैजान के पार्टी नेतृत्व को मजबूत बनाने का प्रश्न दो-तीन महीने पहले ही हल कर लिया गया होता तो, सम्भवतः, न तो सेना को बुलाने की स्थिति ही पैदा होती और न ही उसकी आवश्यकता पड़ती। मेरा तो यही मानना है कि चाहे जो भी परिस्थिति रही हो समस्या के राजनीतिक समाधान और जनता के साथ संवाद के विकल्प मौजूद थे ही। मगर इन विकल्पों का उपयोग नहीं किया गया। हुआ यह कि 19-20 जनवरी की रात को सोवियत सेना तथा सोवियत गृह मन्त्रालय की बड़ी-बड़ी सैन्य टुकड़ियाँ बाकू में प्रवेश कर गईं। इस सब का जो भयंकर परिणाम हुआ, वह अब हम सबको अच्छी तरह मालूम है। इस तरह का निर्णय लेने वाले लोगों के व्यवहार को मैं राजनीतिक दृष्टि से त्रुटिपूर्ण मानता हूँ। यह मूर्खतापूर्ण भयंकर राजनीतिक गलती थी। नेतृत्व को हमारे गणराज्य की वास्तविक स्थिति का और आज़रबैजान की जनता की मानसिकता का पता ही नहीं था। विभिन्न स्तरों के लोगों के साथ उनका पर्याप्त सम्पर्क तक नहीं था। वे सोच ही नहीं पाए कि यह मामला ऐसी भयानक त्रासदी का रूप ले लेगा।
इन सब बातों का पूर्वानुमान लगा कर आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए थे, यह देखते हुए कि क्या करना अधिक ज़रूरी और आवश्यक है। वैसे, ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि मरनेवालों में सैनिकों की संख्या भी कम नहीं है। प्रश्न यह उठता है कि उस रूसी किशोर की भला क्या गलती थी जिसे देश के सर्वोच्च पार्टी नेतृत्व के त्रुटिपूर्ण निर्णय के कारण आज़रबैजान की तथाकथित बगावत को कुचलने के लिए भेजा गया था?
आज़रबैजान में भारी संख्या में बाहर के सैनिक तैनात कर दिए गए हैं। वैसे, मुझे अच्छी तरह मालूम है कि आज़रबैजान में कितने सैनिक मौजूद हैं। वहाँ तैनात सैनिकों की संख्या पहले से ही काफ़ी अधिक थी जिनमें सेना की चौथी डिवीजन, कैस्पियन नौसेना का बेड़ा, छतरीधारी डिवीजन, विमानभेदी रक्षा-प्रणाली के सैनिक तथा गृह मन्त्रालय के आन्तरिक सुरक्षा सैनिक शामिल हैं। तो फिर अतिरिक्त सैनिकों को बुलाने की ज़रूरत क्यों पड़ गई? यदि आवश्यकता थी तो वहीं पर मौजूद सैनिकों को बुलाया जा सकता था। इस तरह का निर्णय लेने वाले आज़रबैजान के नेतृत्व को और मुख्य रूप से वज़ीरोव को इसकी जिम्मेवारी लेनी होगी जो आज़रबैजान से भाग खड़ा हुआ है। इसकी जिम्मेवारी उन लोगों को भी लेनी होगी जिन्होंने देश के सर्वोच्च राजनीतिक नेतृत्व को गलत सूचनाएँ दीं। मेरा ऐसा विचार है कि देश के सर्वोच्च राजनीतिक नेतृत्व को यथासमय पर्याप्त और निष्पक्ष जानकारी मिली ही नहीं होगी। नेतृत्व को धोखे में रखा गया जिसके परिणामस्वरूप ऐसा निर्णय लिया गया।
इस त्रासदी के सभी भागीदारों को सज़ा मिलनी चाहिए।