संयुक्त राज्य अमेरिका के विदेश मन्त्री कोलिन पॉवेल की आज़रबैजान गणराज्य तथा आर्मेनिया गणराज्य के राष्ट्रपतियों और यूरोपीय सुरक्षा और सहयोग संगठन के अन्तर्गत स्थापित मीन्स्क ग्रुप के सह-अध्यक्षों के साथ हुई भेंट-वार्ता में आज़रबैजान गणराज्य के राष्ट्रपति हैदर अलीयेव द्वारा की गई घोषणा, की वेस्ट (Key West), 3 अप्रैल 2001

संयुक्त राज्य अमेरिका के विदेश मन्त्री आदरणीय श्रीमान् कोलिन पॉवेल महोदय,

मीन्स्क सम्मेलन के आदरणीय सह-अध्यक्ष महोदय,

आज की भेंट-वार्ता के सम्माननीय प्रतिभागीगण,

जनसंचार माध्यमों के सम्माननीय प्रतिनिधिगण,

देवियो और सज्जनो! 

विदेश मन्त्री महोदय, सबसे पहले मैं आपके प्रति आभार व्यक्त करता हूँ कि आपने मुझे संयुक्त राज्य अमेरिका आने का न्योता दिया। मैं अमेरिकी प्रशासन, की वेस्ट नगर के अधिकारियों और इस भेंट-वार्ता के सभी आयोजकों का हमारे आतिथ्य तथा काम करने के लिए प्रदान की गई इतनी बढ़िया सुविधाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद करता हूँ।

इस भेंट-वार्ता की विशेषता यह है कि आज पहली बार यूरोपीय सुरक्षा और सहयोग संगठन (यू.सु.स.सं.) के अन्तर्गत स्थापित मीन्स्क ग्रुप की यह बैठक इस रूप में हो रही है कि जब इसके सह-अध्यक्ष आज़रबैजान और आर्मेनिया के राष्ट्रपतियों तथा इस भेंट-वार्ता के अन्य प्रतिभागियों के साथ मिल कर आर्मेनिया और आज़रबैजान  के बीच टकराव और नागोर्नी काराबाख़ संघर्ष के शान्तिपूर्ण समाधान पर विचार करने जा रहे हैं।

खेद की बात है कि पहले कभी इस रूप में वार्ता नहीं हुई थी और अभी तक हमें कोई सफलता न मिलने का एक कारण यह भी हो सकता है। मुझे आशा है कि पिछले बारह सालों से भी अधिक समय से चले आ रहे संघर्ष का हल निकालने में यह भेंट-वार्ता सकारात्मक भूमिका निभाएगी।

विश्व-समुदाय आर्मेनिया और आज़रबैजान  तथा नागोर्नी-काराबाख़ के सैन्य संघर्ष के इतिहास से लगभग सुपरिचित है। ऐसा कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि विश्व में चल रहे टकरावों में से यह एक ऐसा टकराव है जिसका लम्बे समय से कोई समाधान नहीं निकल पा रहा है।

इस सम्बन्ध में इस मौके पर मैं उन कारणों का संक्षेप में उल्लेख करना चाहूँगा जो इस टकराव के समाधान में बाधक बने हुए हैं और अपने कुछ विचार भी आपके सामने रखना चाहूँगा।

यह तो मालूम ही है कि यह टकराव इसलिए पैदा हुआ क्योंकि आज़रबैजान  की कुछ भूमि को आर्मेनिया अपने कब्जे में लेना चाहता था - मूलतः आज़रबैजान  की भूमि नागोर्नी काराबाख़ के कुछ भाग को अलग करके आर्मेनिया अपने में मिलाने की कोशिश कर रहा था। ऐसा 1988 में ही घटित हो चुका था जब आर्मेनिया और आज़रबैजान  संघीय गणराज्यों के रूप में सोवियत संघ का हिस्सा थे। परन्तु आज़रबैजान  के प्रति सोवियत संघ के नेतृत्व के अन्यायपूर्ण रवैये के परिणामस्वरूप या, सम्भवतः, इस टकराव को टालने की अनिच्छा के कारण भी मामला इतना बढ़ गया कि उसने युद्ध का रूप ले लिया।

मैं इस बात का उल्लेख करना चाहता हूँ कि सन् 1923 में आज़रबैजान  के नागोर्नी काराबाख़ इलाके को आज़रबैजान  की सरकार ने स्वायत्त क्षेत्र का दर्जा प्रदान किया था और उसे स्वायत्तता के सभी अधिकार प्राप्त थे। इसलिए इस टकराव के पैदा होने के कोई भी निष्पक्ष कारण थे ही नहीं। टकराव पैदा होने के समय नागोर्नी काराबाख़ की जनसंख्या 1,85,000 थी जिसमें से 74 प्रतिशत आर्मेनियाई थे और 25.2 प्रतिशत आज़रबैजानी।

पड़ोसी देश की भूमि पर कब्जा करने के इरादे से आर्मेनिया ने नागोर्नी काराबाख़ में अलगाववादी और आतंकवादी ताकतों को सशस्त्र विरोध करने के लिए भड़काया था। बाद में उसने स्वयं ही आज़रबैजान  के विरुद्ध सैनिक आक्रमण शुरू कर दिया था। नागोर्नी काराबाख़ पूरी तरह से अलगाववादियों और आर्मेनियाई फ़ौज के कब्जे में आ गया था जिन्होंने वहाँ पर जातीय शुद्धिकरण को अंजाम देते हुए वहाँ से सारे-के-सारे आज़रबैजानियों को निकाल बाहर किया जिनकी संख्या लगभग 50,000 थी। इसके साथ ही हत्याओं और बलात्कारों का क्रम भी जारी था। खोजाली शहर के आज़रबैजानी तो जाति-संहार का शिकार हुए थे।

नागोर्नी काराबाख़ पर कब्जा कर लेने के बाद आर्मेनिया की सेना ने नागोर्नी काराबाख़ क्षेत्र के बाहर सैन्य कार्रवाई शुरू कर दी थी और आज़रबैजान  के अन्य सात बड़े प्रशासनिक क्षेत्रों पर कब्जा जमा लिया था।

इस तरह सन् 1993 तक आज़रबैजान  का 20 प्रतिशत इलाका आर्मेनियाई सेना के कब्जे में आ गया था जहाँ आर्मेनियाई सेना अभी तक जमी हुई है। इस इलाके में सब कुछ नष्ट हो गया है, लूट लिया गया है, सभी चीजों का नामो-निशान तक मिटा दिया गया है। 900 से ज्यादा छोटी-बड़ी आबाद बस्तियाँ, लगभग 800 स्कूल, 250 मेडिकल संस्थान, सारे-के-सारे संग्रहालय और ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक स्मारक – सब कुछ ध्वस्त कर दिया गया है।

इस टकराव के दौरान आज़रबैजान  के तीस हजार नागरिक शहीद हुए हैं, दो लाख से अधिक घायल हुए हैं या अपंग हो गए हैं, हजारों आज़रबैजानी  कैद कर लिए गए हैं , बन्धक बना लिए गए हैं या लापता हो गए हैं। लगभग दस लाख आज़रबैजानी  (अर्थात् आज़रबैजान का हर आठवाँ नागरिक) अपनी भूमि से वंचित हो गए हैं और नौ सालों से तम्बुओं की कठिन और असह्य परिस्थितियों में अपनी जिन्दगी काट रहे हैं। तम्बुओं में रहते-रहते एक नई पीढ़ी पैदा हो गई है।

आज की दुनिया में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं है कि किसी देश ने दूसरे देश की भूमि पर कब्जा जमा कर वहाँ सामूहिक जातीय ‘शुद्धिकरण’ किया हो और ऐसी त्रासदी को विश्व-समुदाय चुपचाप देखता रहा हो। आक्रमणकारी को संयमित करने की आज़रबैजान की न्यायपूर्ण माँग को समर्थन नहीं मिल रहा है।

नौ साल पहले, 24 मार्च 1992 को, यू.सु.स.सं. की मन्त्रिपरिषद् ने हेलसिंकी में हुई अपनी असाधारण बैठक में आर्मेनिया और आज़रबैजान  के बीच टकराव और नागोर्नी काराबाख़ संघर्ष का व्यापक हल निकालने के उद्देश्य से मीन्स्क सम्मेलन बुलाने का निर्णय लिया था। इस तरह दोनों देशों के बीच उत्पन्न हुए टकराव को समाप्त करने के लिए अन्तरराष्ट्रीय संस्था का गठन हुआ। यू.सु.स.सं. का वह निर्णय बहुत महत्व का है जिसमें सम्मेलन के अधिकारों तथा बातचीत की प्रक्रिया का ढाँचा भी सुनिश्चित कर दिया गया है।

सन् 1993 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने आज़रबैजान  की भूमि पर आर्मेनियाई सेना द्वारा कब्जा किए जाने के प्रश्न पर कई बार विचार किया और इस सम्ब्न्ध में चार प्रस्ताव पारित हुए थे – प्रस्ताव सं. 822 – 30 अप्रैल, प्रस्ताव सं. 853 – 29 जुलाई, प्रस्ताव सं. 884 – 14 अक्तूबर, प्रस्ताव सं. 874 – 11 नवम्बर।

इन प्रस्तावों में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने दृढ़तापूर्वक यह माँग की थी कि आर्मेनिया की सेना को आज़रबैजान  पर कब्जा की हुई भूमि से तुरन्त और बिना शर्त हट जाना चाहिए और ऐसा वातावरण बनाया जाना चाहिए कि शरणार्थी तथा अपने स्थायी निवास से हटे हुए लोग अपने मूल निवास को वापस लौट सकें। संयुक्त राष्ट्र ने स्पष्ट रूप से आज़रबैजान गणराज्य की प्रभुसत्ता तथा क्षेत्रीय अखण्डता का समर्थन किया था और इस बात की पुष्टि की थी कि नागोर्नी काराबाख़ का इलाका आज़रबैजान का हिस्सा है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने यू.सु.स.सं. के अन्तर्गत स्थापित मीन्स्क ग्रुप द्वारा की जा रही मध्यस्थता का भी समर्थन किया था।

परन्तु इन प्रस्तावों पर कार्यवाही नहीं की गई और न ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने इस ओर कोई ध्यान दिया है कि उसके द्वारा लिए गए निर्णयों का क्रियान्वन नहीं हुआ है।

दिसम्बर 1994 में बुडापेस्ट में आयोजित यू.सु.स.सं. के शिखर सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया था कि आर्मेनिया और आज़रबैजान  के बीच टकराव और नागोर्नी काराबाख़ संघर्ष को देखते हुए यू.सु.स.सं. अपनी गतिविधियों को तेज करेगा। यू.सु.स.सं. के राष्ट्राध्यक्षों ने टकराव की समाप्ति के लिए चरणबद्ध कार्यक्रम तय किया था और मीन्स्क सम्मेलन के सह-अध्यक्षों को प्राधिकृत किया था कि वे सशस्त्र संघर्ष की समाप्ति के लिए समझौता तैयार करें। वह समझौता ऐसा होना चाहिए था कि जिससे टकराव के मुख्य परिणामों को दूर किया जा सके और जो मीन्स्क सम्मेलन बुलाने का आधार बन सके। यह निर्णय भी लिया गया था कि संघर्ष-क्षेत्र में शान्ति बनाए रखने के लिए यू.सु.स.सं. के बहुराष्ट्रीय सशस्त्र बल को भी रखा जाए।

दिसम्बर 1996 में लिस्बन में हुई यू.सु.स.सं. की शिखर बैठक में टकराव का हल निकालने का बुनियादी फ़ॉर्मूला निश्चित किया गया था। आर्मेनिया गणराज्य को छोड़ कर यू.सु.स.सं. के सभी सदस्य-देशों ने समस्या के हल के लिए तीन प्रमुख सिद्धान्तों का समर्थन किया था जिनमें आज़रबैजान गणराज्य की क्षेत्रीय अखण्डता सुनिश्चित की गई थी, नागोर्नी काराबाख़ को आज़रबैजान के अन्तर्गत अधिकतम स्वशासन सुनिश्चित किया गया था और वहाँ के सभी लोगों को सुरक्षा का आश्वासन दिया गया था।

इस तरह अन्तरराष्ट्रीय समुदाय ने समस्या के हल के लिए कानूनी बुनियाद तैयार की थी, वार्ता संस्था की स्थापना की थी और मध्यस्थों के लिए लक्ष्य निश्चित कर दिए थे।

यू.सु.स.सं. के लिस्बन शिखर सम्मेलन के बाद से विश्व के तीन बड़े देश – रूस, अमेरिका और फ़्रान्स - मीन्स्क ग्रुप के सह-अध्यक्ष हैं जिन पर हमें बड़ी आशाएँ थीं कि इन देशों के प्रयासों से टकराव दूर होगा, आज़रबैजान की क्षेत्रीय अखण्डता फिर से स्थापित होगी और आज़रबैजान के शरणार्थी अपने स्थायी निवास को वापस लौटेंगे। पर, दुःख की बात है कि ऐसा अभी तक भी नहीं हुआ है। संयुक्त राष्ट्र तथा यू.सु.स.सं. के एक भी निर्णय का आर्मेनिया ने पालन नहीं किया है।

मीन्स्क ग्रुप के सह-अध्यक्षों ने आर्मेनिया और आज़रबैजान  के बीच टकराव और नागोर्नी काराबाख़ संघर्ष का हल निकालने के लिए तीन सुझाव दिए थे। पहला सुझाव जून 1997 में दिया गया था जिसमें समस्या का एकमुश्त हल प्रस्तावित किया गया था। दूसरा सुझाव अक्तूबर 1997 में आया था जिसमें समस्या का चरणबद्ध हल प्रस्तावित किया गया था। नवम्बर 1998 में सह-अध्यक्षों ने एक नया, तीसरा सुझाव दिया था – यह सुझाव "समान राज्य" का था।

आज़रबैजान  ने बातचीत की प्रक्रिया के आधार के रूप में सह-अध्यक्षों के पहले और दूसरे सुझावों को स्वीकार कर लिया था यद्यपि उनकी कुछ बातें अन्तरराष्ट्रीय कानून के मानदण्डों और सिद्धान्तों के विरुद्ध थीं तथा आज़रबैजान की क्षेत्रीय अखण्डता के सिद्धान्त को ठेस पहुँचाने वाली थीं। इसके बावजूद आर्मेनिया ने, नकारात्मक रुख अपनाते हुए, इन सुझावों को मानने से इन्कार कर दिया।

सह-अध्यक्षों द्वारा दिए गए "समान राज्य" के सुझाव को हमने अस्वीकार कर दिया था। "समान राज्य" की संकल्पना का कोई अन्तरराष्ट्रीय वैधानिक आधार नहीं है; इसका आशय है नागोर्नी काराबाख़ का एक अलग राज्य और क्षेत्र के रूप में अस्तित्व जिसकी स्थिति आज़रबैजान  के बराबर ही मानी जाएगी। आज़रबैजान  को अपनी भूमि से वंचित करने वाला और आज़रबैजान  पर आर्मेनियाई हमले को वास्तव में वैधता प्रदान करने वाला यह सुझाव अन्तरराष्ट्रीय कानून के सिद्धान्तों और मानदण्डों के बिल्कुल विपरीत है।

हमारे विचार में होना तो यह चाहिए था कि मीन्स्क ग्रुप के सह-अध्यक्ष अन्तरराष्ट्रीय कानून के सिद्धान्तों को दृष्टि में रखते हुए वार्ता की प्रक्रिया पर और अधिक प्रभाव डालते, टकराव का हल जल्दी-से-जल्दी निकालने, आज़रबैजान की क्षेत्रीय अखण्डता को पुनर्स्थापित करने और शरणार्थियों की अपने स्थायी निवास को वापसी में सहायक बनते। आज़रबैजान के अविभाज्य अंग नागोर्नी काराबाख़ को आज़रबैजान के अन्दर ही उच्च स्तर के स्वशासन का अधिकार दिया जा सकता है।

खेद की बात है कि सह-अध्यक्ष मुख्यतः मध्यस्थ का ही काम कर रहे थे और अन्तरराष्ट्रीय कानून के मानदण्डों के अनुरूप वार्ता की प्रक्रिया पर कोई प्रभाव नहीं डाल रहे थे। यू.सु.स.सं. के अन्तर्गत स्थापित रूस, अमेरिका और फ़्रान्स की सदस्यता वाले मीन्स्क ग्रुप के नेताओं से बनीं हमारी आशाओं के अनुरूप अभी तक कोई अपेक्षित परिणाम नहीं निकले हैं।

अप्रैल 1999 से अमेरिकी प्रशासन की पहल पर वाशिंगटन में आर्मेनिया और आज़रबैजान के राष्ट्रपतियों के बीच प्रत्यक्ष भेंट-वार्ताएँ शुरू हुईँ। पिछले कुछ समय में आर्मेनिया के राष्ट्रपति कोचार्यान के साथ मेरी बातचीत कई बार जगह-जगह हो चुकी है – जेनेवा, मास्को, इस्तम्बूल, पेरिस, मीन्स्क, दावोस और याल्ता में तथा हमारे गणराज्यों की सीमा पर भी।

आर्मेनिया के राष्ट्रपति के साथ हुए संवादों के दौरान हमने, मुख्यतः, दोनों पक्षों को स्वीकार्य मध्यमार्ग ढूँढने का प्रयास किया था ताकि टकराव का शान्तिपूर्ण हल जल्दी-से-जल्दी निकल सके और आर्मेनिया तथा आज़रबैजान के बीच दीर्घकालिक स्थायी शान्ति स्थापित हो सके। मैं यह बताना चाहूँगा कि सन् 1999 के अन्त तक आते-आते हम मध्यमार्ग पर पहुँचने ही वाले थे कि आर्मेनिया शीघ्र ही बनी-बनाई सहमति से पीछे हट गया।

इन कठिन वार्ताओं के दौरान आर्मेनियाई पक्ष हमेशा ही कठोर और खण्डनात्मक रुख अपनाता रहा है। हम आर्मेनिया के साथ समझौता नहीं कर सकते हैं क्योंकि उसने हमारी बीस प्रतिशत भूमि पर कब्जा किया हुआ है और वार्ताओं के दौरान वह अपनी इस अनुकूलता का लाभ उठाता है। आर्मेनिया हर तरह से आज़रबैजान की भूमि के एक भाग को अलग करके अपने में मिलाना चाहता है या फिर नागोर्नी काराबाख़ को स्वतन्त्रता की स्थिति में लाना चाहता है।

दुःख की बात है कि हमारी भेंट-वार्ताओं का परिणाम यह निकला है कि मीन्स्क ग्रुप के सह-अध्यक्षों ने प्रतीक्षा करते रहने का निष्क्रिय रुख अपना लिया है और अपने काम को इस सिद्धान्त तक पहुँचा दिया है कि "यू.सु.स.सं. को वही स्वीकार्य होगा जिस पर दोनों देशों के राष्ट्रपतियों की सहमति बनेगी।"

हमारा यह मानना है कि राष्ट्रपतियों की भेंट-वार्ताएँ मीन्स्क ग्रुप के सह-अध्यक्षों की गतिविधि को स्थानापन्न नहीं करती हैं। इसके विपरीत दोनों एक दूसरे की पूरक हैं और दोनों का ही उद्देश्य यह है कि वार्ता की प्रक्रिया आगे बढ़े और यह टकराव अन्तिम रूप से सुलझ सके।

अन्तरराष्ट्रीय कानून के सिद्धान्तों और मानदण्डों तथा संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के अनुरूप संयुक्त राष्ट्र की सदस्यतावाले  प्रत्येक स्वतन्त्र राष्ट्र की क्षेत्रीय अखण्डता तथा सीमाओं की अक्षुण्णता का पालन सभी को करना चाहिए और विशेषकर यू.सु.स.सं. को जिसने इस टकराव को सुलझाने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया है। यू.सु.स.सं. तथा इसके मीन्स्क ग्रुप को दृढ़तापूर्वक इस सिद्धान्त पर चलना चाहिए और हर तरह से कठोरता से इसके पालन में सहायक बनना चाहिए।

वार्ताओं की वर्तमान प्रक्रिया में जो स्थिति आज बनी है वह अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के मामले में एक खतरनाक मिसाल पेश करती है।

अन्तरराष्ट्रीय कानून के मानदण्डों और सिद्धान्तों के कठोर पालन और उन्हें मजबूत बनाने की बजाए अन्तरराष्ट्रीय समुदाय की निर्णयहीनता ही सामने आ रही है। क्षेत्रीय अखण्डता की रक्षा और सीमाओं की अक्षुण्णता जैसे अन्तरराष्ट्रीय कानून के आधारभूत मानदण्डों और सिद्धान्तों पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया गया है और इस तरह से आज़रबैजान गणराज्य के नागोर्नी काराबाख़ इलाके में रह रहे एक लाख आर्मेनियाइयों को खुश करने के इरादे से कई दशकों में निर्मित हुए अन्तरराष्ट्रीय व्यवहार तथा अन्तरराष्ट्रीय विधि के मूलभूत आधारों का ही उल्लंघन हो रहा है। सैन्य आक्रमण को स्वीकृति प्रदान करके प्राप्त हुई शान्ति, स्थिरता और सुरक्षा स्थायी और दीर्घकालिक नहीं हो सकती है।

आर्मेनिया और आज़रबैजान  के बीच टकराव और नागोर्नी काराबाख़ के संघर्ष के इतिहास को प्रस्तुत करने के बाद मैं यह घोषणा करता हूँ कि आज़रबैजान  शान्ति तथा सन् 1994 की मई से लागू हुए युद्धविराम के पालन के प्रति प्रतिबद्ध है। भविष्य में भी हम इस टकराव को शान्तिपूर्ण ढंग से पूरी तरह सुलझाने का प्रयत्न करते रहेंगे।

इसके साथ ही, मेरे विचार में, मेरे द्वारा कही गई बातों से आपको यह अनुमान हो सका होगा कि हम कैसे मुश्किल हालातों में जी रहे हैं। इसलिए मैं यू.सु.स.सं. के मीन्स्क ग्रुप के सह-अध्यक्षों रूस, अमेरिका और फ़्रान्स से निवेदन करता हूँ कि सशस्त्र टकराव को रुकवाने तथा स्थायी शान्ति स्थापित करवाने के लिए आप अपने प्रयासों को तेज़ करने की कृपा करें।

यह प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है कि टकराव रोकने और शान्ति स्थापित करने में सबसे अधिक उत्सुक आज़रबैजान है जिसकी बीस प्रतिशत भूमि दूसरे देश के कब्जे में है, जिसके लाखों नागरिक तम्बुओं में दिन काट रहे हैं। यह तो स्पष्ट ही है कि आर्मेनिया और आज़रबैजान के बीच में शान्ति की स्थापना पूरे दक्षिणी काकेशस की स्थिरता तथा सुरक्षा के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध होगी।

हम बड़ी उम्मीदें लेकर इस भेंट-वार्ता में आए हैं। हम यूरोपीय सुरक्षा और सहयोग संगठन के मीन्स्क ग्रुप के सह-अध्यक्षों रूस, अमेरिका और फ़्रान्स की ओर से सक्रिय प्रयत्नों की तथा आर्मेनिया गणराज्य की ओर से रचनात्मक रुख की आशा करते हैं।

मेरा भाषण सुनने के लिए आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद। 

(समाचार-पत्र "बकीन्स्की रबोची", 4 अप्रैल 2001)